Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२२४
तत्तावलोकवार्तिके
आत्माके स्वरूपका प्रगट होना भी अनेक प्रकारका है । वह आत्माके स्वरूपकी विचित्रता विरुद्ध नहीं है । रोगके उत्पादक दोषोंका जितना जितना निःसरण होता जाता है, आत्मामें उतनी उतनी प्रसन्नताका अनुभव हो जाता है । आत्मासे लगे हुये उन कर्मोका वियोग होना तो अपने कारणविशेषोंकी विचित्रतासे बन जाता है । उन आवरणोंके उपशम, क्षय, क्षयोपशमरूप वियोगका कारण फिर वे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, और भावस्वरूप पदार्थ माने गये हैं, जिनके कि साथ अन्वय, व्यतिरेक होते संते उस योग्यताकी सम्भावना है । यानी समीचीन उत्पत्ति सम्भव रही है, इस कार्यकारणभावका सुलभतासे निर्णय हो जाता है । अतः इसके विस्तारको समाप्त करो यानी अधिक प्रकरण बढाना अनुचित है। यहांतक सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और एकत्वप्रत्यभिज्ञानकी सभी प्रकार निर्दोष हो जानेसे सिद्धि हो चुकी है।
नन्वस्त्वेकत्वसादृश्यप्रतीतिनार्थगोचरा । संवादाभावतो व्योमकेशपाशप्रतीतिवत् ॥ ५० ॥
कोई शंका करता है कि द्रव्यकी भूत, वर्तमान, पर्यायोंमें रहनेवाले एकत्व और समान पर्यायोंमें रहनेवाले सादृश्यको जाननेवाली प्रत्यभिज्ञानरूप प्रतीति तो ( पक्ष ) वास्तविक अर्थको विषय करनेवाली नहीं है ( साध्य ) । क्योंकि उन प्रतीतियोंमें सम्वादका अभाव है ( हेतु )। जैसे कि आकाशके केशोंकी गुथी हुई चोटीको जाननेवाली प्रतीति अर्थको विषय नहीं करती है ( दृष्टान्त )।
सादृश्यप्रत्यभिज्ञैकत्वात्यभिज्ञा च नास्माभिरपहनूयते तथा प्रतीते, केवलं सानर्थविषया संवादाभावादाकाशकेशपाशपतिभासनवदिति चेत् ।
बौद्ध शंका करते हैं कि सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और एकत्व प्रत्यमिज्ञानको हम छिपाते नहीं हैं, क्योंकि भ्रान्त और अभ्रान्तजीवोंके अनेक प्रकार ज्ञान होना प्रतीत हो रहा है। हां, वह प्रत्यभिज्ञा विचारी सफलप्राप्ति-जनकपनारूप सम्वाद नहीं होनेके कारण वास्तविक अर्थको विषय करने वाली नहीं है। जैसे कि आकाशके चुट्टको जाननेवाला ज्ञान वस्तुभूत अर्थको विषय नहीं करता है, ऐसा हमारा अभिप्राय है । बौद्धोंके इस प्रकार कहनेपर तो अब ग्रन्थकार समाधान करते हैं।
तत्र यो नाम संवादः प्रमाणांतरसंगमः । सोध्यक्षेपि न संभाव्य इति ते क प्रमाणता ॥ ५१॥ प्रत्यक्षविषये तावन्नानुमानस्य संगतिः। तस्य स्खलक्षणो वृत्त्यभावादालंबनात्मनि ॥ ५२॥