Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
२९९ आत्माभावो हि भस्मादौ तत्कार्यस्यासमीक्षणात् । सिद्धः प्राणायभावश्च व्यतिरेकविनिश्चयः ॥ १६६ ॥ वाक्रियाकारभेदादेरत्यंताभावनिश्चितः। निवृत्तिनिश्चिता तज्ज्ञैः चिंताव्यावृत्तिसाधनी ॥ १६७ ॥
बौद्ध यदि यों कहें कि तुम तो लोष्ठ आदिकमें आत्माका केवल नहीं दीखना होनेसे व्यतिरेकको साधते हो, संभव है, लोष्ठमें भी आत्मा विद्यमान होय जो कि तुमको नहीं दीख सके, इसपर हमारा कहना है कि हम कोरे नहीं दीखनेसे ही किसीका अभाव नहीं कर देते हैं, जिससे कि हेतु संदिग्ध व्यभिचारी हो जाय, जैसे कि बुद्धमें राग, द्वेष आदिकी सिद्धि करनेपर वक्तापन, पुरुषपन, आदिक हेतु संदिग्ध व्यभिचारी हो जाते हैं। अर्थात् बुद्ध (पक्ष ) रागादिमान है, (साध्य)। १ वक्ता होनेसें २ पुरुष होनेसे ( हेतु ) यहां वक्ता या पुरुषके होनेपर भी वीतरागपना सम्भव है । अतः रागादिकको साधनेमें वक्तापन हेतु संदिग्ध व्यभिचारी हुआ.। सो ऐसा प्राणादिमत्व हेतु नहीं है । उस आत्माके कर्तव्य ज्ञान, सुख, बोलना, चलना, आदि कार्योका भस्म, डेल,
चटाई आदिमें अभाव भले प्रकार देखा जा रहा है। अतः प्राण आदिका अभाव सिद्ध किया है। इस प्रकार साध्यके नहीं होनेपर हेतुका नहीं रहनारूप व्यतिरेकका विशेषता करके निश्चय किया गया है । आत्माके वचन, क्रिया, आकार, भोग, चेष्टा, आदि विशेषोंका भस्म आदिमें अत्यन्ताभाव निश्चित हो रहा है । इस कारण उस आत्मतत्त्वको जाननेवाले विद्वानों करके भस्म आदिमें आत्माके साथ प्राणादिकी निवृत्ति निश्चित कर दी गई है । व्यतिरेक व्याप्तिको जाननेबाला व्याप्तिज्ञान साध्य और साधनकी व्यावृत्तिको साध देता है।
सर्वकार्यासमर्थस्य चेतनस्य निवर्तनं । ततश्चेत्केन साध्येत कूटस्थस्य निषेधनम् ॥ १६८ ॥
कोई वादी यदि यों कहे कि उस वचन, क्रिया, आकार, आदि विशेषोंके अभावसे भस्म आदिमें आप जैन उसी चैतन्यका निषेध कर सकते हैं, जो कि वचन आदिके बनाने में समर्थ था, किन्तु गुप्तचैतन्यका निषेध नहीं कर सकते हो। इस प्रकार भस्म, डेल, आदिमें भी छिपे हुये चैतन्यको माननेवाले वादियोंके कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि यों फिर कूटस्थपनेका निषेध करना किस करके साधा जायगा ? बताओ। भावार्थ-यों तो सर्वत्र संपूर्ण पदार्थोकी सत्ता मानी जासकती है। आकाशमें रूप और पुद्गलमें ज्ञान तथा परिणामी पदार्थमें कूटस्थपना भी प्रच्छन्न रूपसे रह जायगा एवं जीवितपुरुषका और मृतपुरुषका विवेक नहीं हो पायगा । मृतशरीरको अग्निसंस्कार करनेवाले कुटुम्बियोंको महापातकीपनेका प्रसंग हो जायगा । इस प्रकार प्रेमी जनोंके