Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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ननु प्रदेशवृत्तीनां तेषां संवादनं कथं । शरीरमात्रसंबंधमात्मनो भावयेत्सदा ॥ २५७ ॥ यतो निःशेषमूर्तार्थसंबंधविनिवर्तनात् । विभुत्वाभावसिद्धिः स्यादिति केचित्लचक्षते ॥ २५८ ॥ तदयुक्तं मनीषायाः साकल्येनात्मनस्थितेः।
तच्छून्यस्यात्मताहानेस्तादात्म्यस्य प्रसाधनात् ॥ २५९ ॥
यहां वैशेषिककी शंका है कि व्यापकपदार्थोके गुण सम्पूर्ण प्रदेशोंमें तो हम लोगोंको नहीं दीख सकते हैं, जैसे कि व्यापक आकाशका शब्द किसी परिमित देशमें ही सुना जाता है। जैनोंके मत अनुसार शरीरके ही परिमाण मानी गई आत्मामें भी सम्पूर्ण अंशोंमें पीडा, सुख, आदि तो कभी कभी अनुभवे जाते हैं । किन्तु एक एक प्रदेशमें पीडाका अनुभव अनेक बार होता रहता है। शिरमें वेदना है, पेटमें पीडा है, घोंटुओंमें व्यथा है, नेत्रमें केश है, हृदयमें गुदगुदीका सुख है। इस प्रकार आत्माके एक एक अंशमें ही उसके कार्योका उपलम्भ होता है। व्यापक पदार्थोके सभी अंशोंमें रहनेवाले सर्वगतकार्योका उपलम्भ होना तो कठिन है। हां, व्यापकद्रव्यके प्रदेशोंमें वर्त रहे उन सुख आदिकोंका अच्छा सम्वादीज्ञान हो रहा है। वह सदा आत्माके केवल शरीरमें ही संबंधीपनको भला कैसे समझा सकता है ! जिससे कि सम्पूर्ण पांचों मूर्त अर्थोके साथ संबंध होनारूप सर्वगतपनकी विशेषतया निवृत्ति हो जानेसे आत्मामें व्यापकपनका अभाव सिद्ध हो जाय अर्थात् व्यापक आत्माके कतिपय छोटे छोटे अंशोंमें जाने जा रहे दुःख, सुख, आदिक आत्माके व्यापकपनका बिगाड नहीं कर सकते हैं । इस प्रकार कोई बडी ऐंठके साथ बखान रहे हैं । उनका यह कथन अयुक्त है। क्योंकि बुद्धि नामका गुण आत्माके सकल अंशोंमें व्यापरहा माना गया है। उस बुद्धिसे रहित पदार्थीको आत्मापनेकी हानि है। कारण कि आत्माका बुद्धिके साथ तदात्मक होना भले प्रकार साध दिया गया है । और बुद्धि तो शरीरमें ही वर्त रहे. आत्मामें जानी जा रही है। परीक्षा दे रहे विद्यार्थीके निकट गुरुके आत्माकी बुद्धि नहीं पहुंच रही है । अतः आत्माके सकल अंशोंमें व्याप रही बुद्धिकी स्थिति केवल शरीरमें ही हो रही है । अतः आत्मा शरीरके परिमाण ही है। व्यापक नहीं है। --
यद्यपि शिरसि मे सुखं पादे मे वेदनेति विशेषतः प्रदेशवृत्तित्वं सुखादीनामनुभूयते तदनुभवविशेषाणां च तथापि ज्ञानसामान्यस्य सर्वात्मद्रव्यवृत्तित्वमेव, ज्ञानमात्रशून्यस्यात्मविरोधादतिप्रसक्तेरिति साधितं उपयोगात्मसिद्धौ । ततो युक्तेयं व्यापकविरुद्धकार्योपलब्धिः।