Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
निषेध करनेवाला नहीं है । इस कारिकासे अद्वैतवादियोंने प्रत्यक्ष द्वारा एकत्वकी विधि की है । किन्तु सच पूछो तो सब जीवोंके प्राचीन आर्वाचीन सभी प्रत्यक्ष सामान्य विशेष आत्मक वस्तुका विधान कर रहे हैं । सामान्य विशेष आत्मक वस्तुका निषेध नहीं करते हैं। हां, विशेषकी ओर लक्ष्य जानेपर अन्यके निषेधोंको भी साध देते हैं। प्रतीतिके अनुसार वस्तुकी व्यवस्था मानलेनी चाहिये। अन्यथा घपला मच जायगा
जात्यादिकल्पनोन्मुक्तं वस्तुमात्रं स्खलक्षणम् ।
तज्ज्ञानमक्षजं नान्यदित्यप्येतेन दूषितम् ॥ ११ ॥
इस उक्त कथनसे बौद्धौंका यह मन्तव्य भी दूषित कर दिया गया समझ लेना चाहिये कि जाति, नामयोजना, संसर्ग, द्रव्यपन, स्थूलता, साधारणता, स्थिरता, प्रत्यभिज्ञानविषयता, दूरत्व, परत्व, ममतवभाव, आदि कल्पनाओंसे सर्वथा रहित हो रहा क्षणिक स्वलक्षणमात्र ही वस्तुभूत है, ऐसे निर्विकल्पक स्वलक्षणका ज्ञान इन्द्रियोंसे जन्य हुआ यथार्थ है । अन्य कोई ज्ञेय या ज्ञान समीचीन नहीं है । इस प्रकारके बौद्धसिद्धान्तमें प्रमाणोंसे विरोध होनेके कारण अनेक दूषण आते हैं । उनको हम पहिले कह चुके हैं।
किं पुनरेवं स्याद्वादिनो दर्शनमवग्रहपूर्वकालभावि भवेदित्यत्रोच्यते ।
यहां अब दूसरे प्रकारकी जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि स्याद्वादियोंके यहां माना गया सामा-, न्यको ग्रहण करनेवाला दर्शन उपयोग क्या फिर इस प्रकार सामान्य विशेष आत्मक वस्तुको जाननेवाले अवग्रह ज्ञानसे पूर्वकालमें होनेवाला होगा ? या कैसा होगा ! इस प्रकार सच्छिष्यकी आकांक्षा होनेपर यहां आचार्य महाराज द्वारा सप्रमोद उत्तर कहा जाता है ।
किंचिदित्यवभास्यत्र वस्तुमात्रमपोध्दृतं । तग्राहि दर्शनं ज्ञेयमवग्रहनिबंधनम् ॥ १२ ॥ .
" कुछ है " इस प्रकार प्रतिभास करनेवाला और पृथक्कृत ( नहीं ) हुई उस सामान्य वस्तुको ग्रहण करनेवाला दर्शन उपयोग जानना चाहिये । आंखोंको मीचकर पुनः खोलनेपर सन्मुख स्थित पदार्थके विशेषोंको नहीं ग्रहण कर केवल उसकी महासत्ताका आलोचन करनेवाला दर्शन है। पीछे झटिति विशेषोंको जाननेवाला ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । इस सामान्यग्राही दर्शनके पीछे हुये ज्ञानका कालव्यवधान सब जीवोंको नहीं प्रतीत होता है । फिर भी जिनकी विशुद्ध प्रतिभा है, उनको दर्शन और ज्ञानका अन्तरकाल प्रतीत हो जाता है । यद्यपि “ कुछ कुछ है " सत् सामान्य है, ये भी एक प्रकारके अनध्यवसायरूप ज्ञान हैं। किन्तु शिष्योंको दर्शन उपयोगकी