Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
ननु च विषयस्य सत्यत्वे संवेदनस्य सत्यत्वमिति न्याये प्रतिभासमात्रमेव परमब्रह्म सत्यं तद्विषयस्य सन्मात्रस्य सत्यत्वान्न भेदज्ञानं तद्द्वोचरस्यासत्यत्वादिति मतमनूध दूषयबाह।
यहां अद्वैतवादियोंकी शंका है कि विषयके सत्य होनेपर उसको जाननेवाले ज्ञानकी सत्यता मानी जाती है । इस प्रकार न्याय हो जानेपर प्रतिभास मात्र ही परमब्रह्म जब सत्य है, तो उसको विषय करनेवाला केवल शुद्ध सत्का अभेदज्ञान ही सत्य होगा। भेदज्ञान तो सत्य नहीं हो सकता है। क्योंकि उसका विषय हो रहा भेदपदार्थ असत्य है, अपरमार्थ है । इस प्रकारके अद्वैत मतका अनुवाद कर उसको दूषित कराते हुये आचार्य महाराज स्पष्ट कथन करते हैं।
ननु सन्मात्रकं वस्तु व्यभिचारविमुक्तितः। . न भेदो व्यभिचारित्वात्तत्र ज्ञानं न तात्त्विकम् ॥ ८॥
इत्ययुक्तं सदाशेषविशेषविधुरात्मनः । सत्त्वस्यानुभवाभावाद्भेदमात्रकवस्तुवत् ॥ ९॥ दृष्टेरभेदभेदात्मवस्तुन्यव्यभिचारतः। पारमार्थिकता युक्ता नान्यथा तदसंभवात् ॥ १० ॥
यहां अद्वैतवादी अपने मन्तव्यकी स्थापनाके लिये पुनः आमंत्रण करते हैं कि चित् , आनन्दस्वरूप, केवल शुद्ध सत् ही परमार्थ वस्तु है । क्योंकि उस केवल सत्में कहीं भी व्यभिचार नहीं देखा जाता है । सीपमें चांदीको जाननेपर भी सत्पनेका ज्ञान तो निर्दोष है। चांदी हो या सीप होय, कुछ है तो सही । द्विचन्द्रज्ञानका विषय सन्मात्र तो निर्दोष है । दीन, निर्धन, चिर-असाध्य रोगी, वन्ध्या, विधवा, इन जीवोंके पास भले ही आत्मगौरव, धन, स्वास्थ्य, पुत्र, पति, नहीं हैं । किन्तु इनकी अक्षुण्ण सत्ता तो जगत् में है ही। अतः सर्वत्र, सर्वदा, सर्वसुलभ, सत्मात्र ही वास्तविक है । विशेषरूपसे देखे जारहे भेद तो यथार्थ नहीं हैं । क्योंकि भेदका ज्ञान होना व्यभिचारदोषसे युक्त है । प्रायःकरके सभी भेदप्रतिमासोंमें दोष देखे जाते हैं । रूप, रस, स्पर्शके आपेक्षिक ज्ञान ठीक ठीक नहीं उतरते हैं । वृक्षका एक ही प्रकारका रूप दूर, दूरतर, समीप, समीपतरसे देखनेपर कई प्रकारका दीखता है। शुक्ल वस्त्र पहिननेसे मनुष्य कुछ लम्बासा दीख पडता है। किन्तु काले वस्त्र पहिननेसे वही मनुष्य कुछ नाटा दीखने लग जाता है । तीव्र रसवाले पदार्थका भक्षण करनेपर मन्द रसवाला पदार्थ सर्वथा नीरस जाना जाता है। अखच्छ नगरमें रहनेवाले संपन्न पुरुषोंकी भी नासिका इन्द्रियें थोडीसी दुर्गन्धका तो प्रतिभास नहीं कर पाती हैं। जब कि स्वच्छग्रामका रहनेवाला किसान नाक मोह सिकोडकर वहांसे भगनेको उद्यत हो जाता है। निग्रहशक्तिशाली प्रतिष्ठित पुरुषके सन्मुख सामान्य प्रसिद्ध बातको कोई भी कह देता है । किन्तु