Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
जिस समय प्रमाणपना ज्ञानपनेसे व्याप्त हो रहा साधा जा रहा है, अज्ञानको प्रमाणपना माननेसे प्रदीप, घट, आदिमें अतिप्रसंग हो जायगा, तब तो उस निषेधरहितसाध्यके व्यापक ज्ञानपनसे विरुद्ध अज्ञानपनकी उपलब्धिरूप हेतु व्यापकविरुद्ध उपलब्धि समझ लेनी चाहिये । अचेतन हो रहे सन्निकर्ष आदिक प्रमाण नहीं हैं ( प्रतिज्ञा ), अज्ञानपना होनेसे ( हेतु ), इस अनुमानमें व्यापकविरुद्ध-उपलब्धि हेतु है। किन्तु जब प्रमाणपना प्रमितिके साधकतमपनसे व्याप्त हो रहा है
और ज्ञानस्वरूपसे प्रमितिका साधकतमपना व्याप्त हो रहा साधा जाता है। क्योंकि प्रमितिके असाधकतमको प्रमाणपना नहीं बनता है । तथा अज्ञानस्वरूप पदार्थोको स्वार्थोकी प्रमितिमें साधकतमपना अयुक्त भी है। हां, छेदन, तक्षण, प्रकाश, आदि क्रियाओंमें भले ही अज्ञानस्वरूप फर्सा, वसूला, प्रदीप, आदिको साधकतमपना युक्त है, तब तो वही अनुमान व्यापकव्यापकविरुद्ध-उपलब्धिका उदाहरण समझ लेना चाहिये। किसी किसी सद्धेतुमें सद्धेतुओंके अनेक गुण भी रह जाते हैं। जैसे कि वायु ज्ञानवान् है, स्नेह होनेसे, इस अनुमानके असद्धेतुमें कई हेत्वाभास दोष सम्भव रहे हैं ।
व्यापकद्विष्ठकार्योपलब्धिः कार्योपलब्धिगा।
श्रुतिप्राधान्यतः सिद्धा पारंपर्याद्विरुद्धवत् ॥ २५४ ॥ . यथा नात्मा विभुः काये तत्सुखाद्युपलब्धितः।
विभुत्वं सर्वभूर्तार्थसंबंधित्वेन वस्तुनः ॥ २५५ ॥ व्यासं तेन विरोधीदं कायसंबंधमात्रकं ।
काय एव सुखादीनां तत्कार्याणां विबोधनम् ॥ २५६ ॥
कार्य उपलब्धिको प्राप्त हो रही व्यापकविरुद्ध कार्य उपलब्धि हेतु भी आगम प्रमाणकी प्रधानतासे सिद्ध हो रही है । जैसे कि स्वभावविरुद्ध या कार्यविरुद्ध हेतु सिद्ध हैं। उसी प्रकार व्यापक या व्यापककारण आदिकी परम्परा लगानेसे भी हेतु भेद बन जाते हैं। जैसे कि आत्मा ( पक्ष ) व्यापक नहीं है ( साध्य ), शरीरमें ही उसके सुख, दुःख आदि गुणोंकी उपलब्धि हो रही है । वैशेषिकोंने आत्मा, काल, आकाश, दिक्वस्तुओंका विभुपना सम्पूर्ण पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और मन इन पांच मूर्त अर्थोके संबंधीपनसे व्याप्त हो रहा माना है । उस व्यापकपनसे यह केवल कार्यसे ही संबंधी होनापन विरुद्ध है । उस आत्माके कार्य हो रहे सुख आदिकोंका शरीर हामें तो विशद बोध हो रहा है । अतः " सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगित्वं विभुत्वम् " ऐसे निषेध करने योग्य विभुपनका व्यापक सम्पूर्ण मूर्तद्रव्योंसे संबंधीपना है । और सर्व मूर्त संबंधीपनसे विरुद्ध केवल शरीरमें ही संबंधीपना है । उस कार्य संबंधीपनका कार्यशरीरमें ही सुख, दुःख, प्रयत्न, आदिका उपलम्भ होना है । अतः यह व्यापकविरुद्धकार्य उपलब्धि हेतु है।