Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थश्लोकबार्तिके
है । अर्थात् जिस प्रतिज्ञावक्यमें प्रत्यक्ष आदिसे बाधा उपस्थित होगी वह साध्यकोटिमें नहीं स्थिर रह सकेगा । " प्रत्यक्षनिराकृतो न पक्षः "।
तेनानुष्णोग्निरित्येष पक्षः प्रत्यक्षबाधितः। ... धूमोनग्निज एवायमिति लैंगिकबाधितः ॥ ३३८ ॥ प्रेत्यासुखपदो धर्म इत्यागमनिराकृतः। नृकपालं शुचीति स्याल्लोकरूढिप्रबाधितः ॥ ३३९ ॥ पक्षाभासः स्ववाग्बाध्यः सदा मौनव्रतीति यः।
स सर्वोपि प्रयोक्तव्यो नैव तत्त्वपरीक्षकैः ॥ ३४०॥
तिस कारण अर्थात साध्यके लक्षणों शक्यपद डाल देनेसे इनकी व्यावृत्ति हो जाती है कि अग्नि अनुष्ण ( ठंडी ) है, यों यह पक्ष स्पर्शन इंद्रियजन्य प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधित है और धुआं तो अग्निमिन पदार्थोसे ही उत्पन्न है, यह प्रतिज्ञा अनुमानसे बाधित है । क्योंकि अग्निसे उत्पन्न हुआ धुआं है । इस प्रकार अव्यभिचारी कार्यकारणभावका अनुमान कर लिया गया है। तथा धर्मपालन करना मरनेके पीछे सुख देनेवाला नहीं है, यह पक्ष आगमप्रमाणते निराकृत हो जाता है। क्योंकि प्रायः सर्व ही वादियोंके अभीष्ट शास्त्रोंमें धर्मपालनद्वारा परलोकमें सुखप्राप्ति होना माना गया है। " धर्मः सुखस्य हेतुः " " धर्मेण गमनमूर्ध" '' यतोभ्युदयनिश्रेयसः सिद्धिः स धर्मः " " धर्मात्प्रभवति सुखं " " संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ” इत्यादि आगमोंके निर्दोष वाक्य हैं । एवं मनुष्यके शिरका कपाल शुद्ध है, (प्रतिज्ञा ) प्राणीका अंग होनेसे, यह पक्ष लोकरूढिसे प्रबाधित हो रहा है। कोई भी सत्कर्मा मनुष्य खोपडीको पवित्र नहीं मानता है। अबोरी या कुत्सितमंत्रोंको साधनेवालोंकी कथा न्यारी है । तथैव अपने वचनोंसे ही बाधी जा रही यह प्रतिज्ञा पक्षाभास है कि कोई चिल्लाकर कहे कि मै सर्वदा मौनत्रत रखता हूं, इत्यादि और भी जो पक्षाभास ( साध्यामास ) है, वे समी तत्त्वोंकी परीक्षा करनेवाले विद्वानोंकरके नहीं प्रयोग करने चाहिये । क्योंकि हम जैनोंने शक्य यानी अबाधितको ही साध्य अभीष्ट किया है।
शब्दक्षणक्षयेकांतः सत्त्वादित्यत्र केचन । दृष्टांताभावतोशक्यः पक्ष इत्यभ्यमंसत ॥ ३४१ ॥ तेषां सर्वमनेकान्तमिति पक्षो विरुध्यते । तत एवोभयोः सिद्धो दृष्टांतो न हि कुत्रचित् ॥ ३४२ ॥