Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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सम्यग्दर्शन नहीं होनेसे असंज्ञीपर्यंत जीवोंका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है । फिर पहिला एवकार व्यर्थ क्यों लगाया जा रहा है ! तिसपर हमारा यह कहना है कि अच्छा, तब तो श्रुतज्ञानके व्यवच्छेदके लिये पहिला अवधारण रहो, क्योंकि वह श्रुतज्ञान केवल मनरूप निमित्तसे ही उत्पन्न होता है। अतः सूत्रवाक्यका भेद नहीं कर पहिला अवधारण करना समुचित है। तथा दूसरी बात यह है कि मिथ्यादृष्टि जीवोंका दर्शनमोहनीयकर्मके उदयसे नष्ट भ्रष्ट हो रहा मन विद्यमान भी हो रहा अविद्यमान सदृश है। इस प्रकार विवक्षा करनेपर तो वह मिथ्यादृष्टियोंका ज्ञान इन्द्रियजन्य ही हुआ इस कारण समी संज्ञी असंज्ञी जीवोंके मति अज्ञानोंमेंसे कोई भी मति अज्ञान दोनों इन्द्रिय अनिन्द्रियरूप निमित्तोंसे उत्पन्न नहीं हुआ है । तिस कारण उस मति अज्ञानका व्यवच्छेद करने के लिये पहिला अवधारण करना युक्तिपूर्ण है।
इस सूत्रका सारांश। .. इस सूत्रका लघुसूचन यों हैं कि मतिज्ञानके बहिरंग और अन्यवादियोंके यहां प्रसिद्ध हो रहे निमित्त कारणोंके दिखलानेके लिये यह सूत्र अवतीर्ण हुआ है। तत् शब्द करके अनर्थान्तर शद्वका परामर्श किया है । यहां ज्ञानके उत्पादक कारकोंका वर्णन है । ज्ञापक हेतुओंका निरूपण नहीं है । सूत्रका योगविभाग कर धारणापर्यन्त ज्ञान तो इन्द्रिय, अनिन्द्रिय दोनोंसे उत्पन्न हो जाते निर्णीत हैं । तथा स्मृति आदिकोंमें केवल मन ही निमित्त पडता है। हां, परम्परासे इन्द्रियां भी स्मृति आदिकोंका निमित्त हो जाती हैं । ऐसी दशामें योगविभाग करनेकी आवश्यकता नहीं है । इस सूत्रमें उद्देश्य, विधेय, दोनों ओरसे एवकार लगाना अभीष्ट है। वाक्यभेद करनेपर उत्तर अवधारणसे बौद्धोंके अर्थजन्यत्वका खण्डन हो जाता है । और एक ही वाक्य होनेपर पहिले अवधारणसे मति अज्ञान, श्रुतज्ञान आदिमें अतिव्याप्ति नहीं हो पाती है । अर्थ और आलोक ज्ञानके कारण नहीं हैं। अनेक दोष आते हैं । आलोकके समान अर्थ भी ज्ञानका आलम्बन कारण नहीं है। ज्ञान और ज्ञेयका यद्यपि विषयिता सम्बन्ध है। यानी स्वनिष्ट-विषयिता-निरूपित-विषयता सम्बन्धसे ज्ञान ज्ञेयमें ठहरता है । किन्तु यह सम्बन्धवृत्तिताका नियामक नहीं है। ऐसी दशामें कार्यकारणभावकी कथा तो दूर ही समझो, हां, ज्ञानपना और ज्ञेयपना परस्पर आश्रित है। किन्तु ज्ञान और ज्ञेयकी उत्पत्ति तो अपने अपने न्यारे कारणोंसे अपने नियत कालमें होती है। इसको अच्छा विचार चलाया है । अनेक ज्ञान समानकालके पदार्थोको जानते हैं। और कोई ज्ञान आगे पीछे के अर्थोको जानते हैं । ज्ञाप्य ज्ञापकके अतिरिक्त और कोई भी सम्बन्ध ( ताल्लुक ) ज्ञान, ज्ञेयोंमें नहीं है । अतः ज्ञानका कारण ही ज्ञान द्वारा जांना जायगा, यह बौद्ध मत दुर्घट हुआ। सम्पूर्ण ही ज्ञान स्वशरीरको स्वके द्वारा प्रत्यक्षरूपसे सम्वेदन करते हैं । अतः पिछला अवधारण अन्य मतियोंके मन्तव्यका व्यवच्छेद करनेके लिये है । और पहिला अवधारण तो मति