Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
निर्णीत कर दिये गये हैं, मति स्मृति आदिक प्रकार जिसके, ऐसे मतिज्ञानके एक एक भेदों को समझानेके लिये उमास्वामी महाराज श्रोताओंकी विपरतिबुद्धिका अभाव करते हुये " अवग्रहेहावायधारणाः " इस सूत्रको निर्भ्रान्त कहते हैं ।
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"मतिज्ञानस्य निर्णीताः प्रकारा मतिस्मृत्यादयस्तेषां प्रत्येकं भेदानां वित्त्यैव सूत्रमिदमारभ्यते । यथैव हींद्रियमनोमतेः स्मृत्यादिभ्यः पूर्वमवग्रहादयो भेदास्तथा निंद्रियनिमित्ताया अपीति प्रसिद्धं सिद्धांते ।
मतिज्ञानके मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, स्वार्थानुमान, प्रतिभा, अर्थापत्ति आदि प्रकारोंका प्रपूर्वसूत्रमें निर्णय किया जा चुका है । उन प्रकारोंके प्रत्येकके भेदोंकी सम्बित्ति करानेके लिये ही यह सूत्र आरम्भा जाता है । अथवा एक मतिः स्मृति आदि सूत्रका यह परिवार बनाया जाता है । जिस ही प्रकार इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न हुई मतिके स्मृति आदिक प्रकारोंसे पहिले अवग्रह, ईहा, अवाय, आदिक भेद उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार केवल मनरूप निमित्तसे ही उत्पन्न हुई मतिके भी पूर्व में अवग्रह आदिक भेद बन रहे हैं । इस प्रकार जैन सिद्धान्तके उच्च कोटिके धवल, सिद्धान्त, आदि ग्रन्थोंमें प्रसिद्ध हो रहा है । अर्थात् — जिस प्रकार अनुमानके पहिले व्याप्तिज्ञान, व्याप्तिज्ञानके पहिले प्रत्यभिज्ञान, प्रत्यभिज्ञानके पहिले स्मृतिज्ञान होता है, स्मृतिके पहिले धारणा, धारणा पहिले अवाय, अवायके पहिले ईहा, ईहा के पूर्व में अवग्रह, ये सम्यग्ज्ञान होते हैं । यद्यपि अवग्रहके पहिले कदाचित् निर्विकल्पक ज्ञान और सर्वत्र आलोचनात्मक दर्शन होता है । फिर भी सम्यग्ज्ञानका प्रकरण होनेसे उनको गिनाया नहीं है। उसी प्रकार सुख, वेदना, इच्छा, क्रोध पश्चात्ताप सम्यग्दर्शन आदिके मनइन्द्रियजन्य मतिज्ञानके भी पहिले इन सुख आदि प्रेमयोंके अवग्रह आदिक ज्ञान हो जाते हैं । अत्यन्त शीघ्र उत्पन्न हो जानेसे भले ही उन अवग्रह आदिकोंका भी कार्यकारणभावका अतिक्रमण नहीं होते हुये अभीष्ट किया गया है। कारणस्वरूप पूर्वपर्यायके सकती है। जैसे कि ' पुष्पका उदय होनेके
अन्तराल दीखता हुआ सम्वेदन न होय, फिर उन अवप्रह आदिकोंकी क्रमसे उत्पत्ति होना हुये विना उत्तरसमय में कार्यपर्याय नहीं बन पश्चात् ही फल लगता है ।
किंलक्षणाः पुनरवग्रहादय इत्याह ।
फिर उन अवग्रह, ईहा, आदिकोंका निर्दोष लक्षण क्या हो सकता है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराजके अभिप्राय अनुसार श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
अक्षार्थयोग जाद्वस्तुमात्रग्रहणलक्षणांत् ।
जातं यद्वस्तुभेदस्य ग्रहणं तदवग्रहः ॥ २ ॥