Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अभिनिबोध नहीं माना है। किन्तु अन्यथानुपपत्ति लक्षणवाले हेतुसे शक्य, अभिप्रेत, असिद्ध, साध्यका ज्ञान करलेना अभिनिबोध है। ____यः साध्याभिमुखो बोधः साधनेनानिद्रियसहकारिणा नियमितः सोभिनिबोधः स्वार्थानुमानमिति।
मनकी सहकारिताको प्राप्त हो रहे ज्ञापकहेतुकरके साध्यके अभिमुख होकर नियम प्राप्त हो रहा जो ज्ञान है, वह अमिनिबोध है । " अमि" यानी अभिमुख " नि" यानी अविनाभावरूप नियम प्राप्त बोध यानी ज्ञान है । वह अभिनिबोध स्वार्थानुमान है । यह प्रकरणके अनुसार अभिनिबोधका सिद्धान्त लक्षण है।
कश्चिदाहकोई जैनका एकदेशीय पण्डित यहां कह रहा हैइंद्रियातींद्रियार्थाभिमुखो बोधो ननु स्मृतः । नियतोक्षमनोभ्यां यः केवलो न तु लिंगजः ॥ ३९०॥
यहां विचार करना चाहिये कि इन्द्रियोंसे ग्रहण करने योग्य अर्थ और बहिरंग इन्द्रियोंसे नहीं भी ग्रहण करने योग्य अतीन्द्रिय अर्थकी ओर अभिमुख हो रहा नियमित ज्ञान करना तो अभिनिबोध माना गया है किन्तु इन्द्रिय और मनकरके सहकृत हो रहे केवल ज्ञापक लिंगकरके ही जो ज्ञान उपज रहा है, वही तो अभिनिबोध नहीं माना जाता है । अर्थात् " मतिः स्मृतिः " आदि सूत्रमें पडे हुये अमिनिबोधका अर्थ स्वार्थानुमान और क्वचित् अभेददृष्टिसे आपने पकडा • परार्थानुमान है, किन्तु सामान्य अभिनिबोधका अर्थ सभी मतिज्ञान है । अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, ये सभी ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनसे उत्पन्न हुये होने के कारण मतिज्ञान माने गये चले आ रहे हैं, फिर अकेले अनुमानको ही अभिनिबोध क्यों कहा जा रहा है ! बताओ।
__ इन्द्रियानिन्द्रियाभ्यां नियमितः कृतः स्वविषयाभिमुखो बोधोभिनिबोधः प्रसिद्धो न पुनरनिन्द्रियसहकारिणा लिंगेन लिंगिनियमितः केवल एव चिन्तापर्यन्तस्याभिनिबोधत्वाभावप्रसंगात । तथा च सिद्धान्तविरोधोऽशक्यः परिहर्तुमित्यत्रोच्यते ।
इन्द्रिय और अनिन्द्रिय ( मन ) से नियमित करदिया गया तथा अपने विषयकी ओर अमिमुख हो रहा ज्ञान अभिनिबोधपनसे प्रसिद्ध हो रहा है । किन्तु फिर मनको ही सहकारी कारण मानकर ज्ञापक हेतुकरके साध्यके साथ नियमित हो रहा केवल अनुमान ही तो अभिनिबोध नहीं है। यों तो अवग्रह, आदिक तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्कपर्यन्त ज्ञानोंको अभिनिबोधपनके अभावका प्रसंग होगा और तैसा होनेपर आतोपज्ञ सिद्धान्तके साथ आये हुये विरोधका परिहार