Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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. तत्त्वार्थचिन्तामणिः
भावार्थ-सत्त्व, द्रव्यत्व, आदिक तो अग्निसे अजन्य वस्त्र, पुस्तक, आत्मा, पारा, आकाश, आदि विपक्षोंमें रह जाते हैं । अतः सम्पूर्ण विपक्षोंसे व्यावृत्त सत्त्व, आदिक हेतु नहीं हैं । ऐसी दशामें हेत्वामासोंमें नहीं जानेके कारण पंचरूपपना हेतुका असाधारण लक्षण सिद्ध हो गया। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो उन नैयायिकोंको नहीं कहना चाहिये। क्योंकि तब तो आप अन्यथानुपत्तिको ही हेतुका रूप कह रहे हैं। क्योंकि वह अविनाभाव ही तो पूर्णरूपसे व्यतिरेकका निश्चयरूप है । उस अन्यथानुपपत्तिके विना शेष चाररूप बने भी रहे तो भी कुछ प्रयोजनको साधनेवाले न होनेसे उनको अकिंचित्करपनेका प्रसंग आता है। उस एक अन्यथानुपपत्तिसे रहित हो रहे ही पंचरूपत्व, त्रिरूपत्व आदिको अलक्षणपनेकरके साधने योग्य होनेसे यह हमारा अतिदेश करना समुचित है । अर्थात् समीचीन हेतुओंका अतिक्रमणकर सत्त्व आदिक हेत्वाभासोंमें पंचरूपपना ठहर गया, यह अतिव्याप्ति देनारूप हमारा कथन ठीक है । थोडेसे चिन्हसे विशेषज्ञान कर लिया जाता है।
एवमन्वयव्यतिरेकिणा हेतोः पंचरूपत्वमलक्षणं व्यवस्थाप्यान्वयिनोपिनान्वयो लक्षणं साधारणत्वादेवेत्साहः
इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेकसे सहित हो रहे हेतुका पंचरूपपना लक्षण नहीं है । इसको व्यवस्थापित कर अब अन्वयवाले हेतुका भी लक्षण सपक्षमें वर्तनारूप अन्वय नहीं है । क्योंकि हेतु और हेत्वाभासोंमें सामान्यरूपसे अन्वय रह जाता ही है, इस बातको ग्रन्थकार स्वयं प्रतिपादन करते हैं ।
अन्वयो लोहलेख्यत्वे पार्थिवत्वेऽशनेस्तथा । तत्पुत्रत्वादिषु श्यामरूपत्वे क्वचिदीप्सिते ॥ १८९॥
वज्रं लोहलेख्यं पार्थिवत्वात् काष्ठवत्, इस अनुमान द्वारा वज्रको लोहेसे लेख्यपना (खुरचना) साधनेपर पृथ्वीका विकारपन हेतुमें अन्वय विद्यमान है। अर्थात् वज्र (विशेष हीरा ) ही एक पृथ्वीके विकारी हुये पदार्थों से लोहे द्वारा नहीं उकेरा जाता है । शेष घट, पाषाण, लोहा, स्फटिक, कांच, पन्ना, आदि सब पार्थिव पदार्थ लोहेसे छील दिये जाते हैं । लोहेकी सुईसे ताडपत्रपर खुरचकर लिखा जाता है । सच तो वही लिखना है। पत्र ( कागज ) पर तो काष्ठलेखनी द्वारा मषीसे काढना या चितेरना होता है । उस वज्रको तो पक्षकोटिमें डाल लिया । अब पक्षसे न्यारे सभी लोहलेख्य पदार्थोंमें पार्थिवत्व हेतुका अन्वय विद्यमान है। किन्तु यहां पार्थिवत्व सद्धेतु नहीं माना गया है । तथा "गर्भस्थः पुत्रा. श्यामो भवितुमर्हति मित्रातनयत्वात् दृष्टपुत्रवत्" इस अनुमान द्वारा किसी अभीष्ट गर्भस्थित पुत्रमें श्यामरूपपना साध्य करनेपर तत्पुत्रत्व आदि हेतुओंमें अन्वय होते हुये भी वे समीचीन हेतु नहीं हैं। क्योंकि गर्भका लडका गोरा है । अतः हेतुका लक्षण अन्वय करना ठीक नहीं है।