Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
कि कार्यमें व्यापार करनेवाले कारण माने जाते हैं । भविष्यमें होनेवाले कारण भला कार्यमें कैसे सहायता कर सकते हैं ! कथमपि नहीं।
परस्पराविनाभावात् कश्चिद्धेतुः समाश्रितः। - हेतुतत्त्वव्यवस्थैवमन्योन्याश्रयणाजनैः ॥ २२९ ॥
कार्य और कारणका परस्परमें अविनामाव हो जानेसे दोनोंमेंसे चाहे जिस किसीको हेतु बनानेका आश्रय लोगे तब तो इस ढंगसे मनुष्यों द्वारा हेतुत्त्वकी व्यवस्था हो चुकी ! ( उपहास ) क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष आता है।
राज्यादिदायकादृष्टविशेषस्यानुमापकम् । पाणिचक्रादि तत्कार्य कथं वो भाविकारणम् ॥ २३०॥
राजापन, सेठपन, यशस्वीपन, पुत्र, कलत्र, धन, आदिसे सहितपना, विद्वत्ता, तथा पुत्रवियोग, दरिद्रता, चिरस्थिररोग, मूर्खता आदिको भविष्यमें दिलानेवाले, पुण्यपापविशेषोंका अनुमान करानेवाले पाणिचक्र आदि चिन्ह उन भविष्यमें होनेवाले राज्य आदि कारणोंसे बनाये गये हैं अर्थात् हाथमें चक्र, हाथी, मछली, रेखा अथवा, पैरोंमें शंख आदि चिन्ह उनके कार्य हैं । और भविष्यमें होनेवाले राज्य, पत्निवियोग आदिक कारण हैं। आचार्य कहते हैं कि तिस प्रकार भविष्यमें होनेवाले कारणोंका आश्रय कर वे भूत हो चुके राज्य आदिक कार्य तुम्हारे यहां कैसे हो जाते हैं ! यह महान् आश्चर्य है । जहां सरोवर भविष्यमें खुदनेवाला है । वहां पूर्वसे ही मगर कैसे किलोलें कर सकता है ! अर्थात् नहीं, भविष्यमें होनेवाले पदार्थ भूतकार्यके कारण नहीं बन सकते हैं। हां, सामग्रीयुक्त समर्थकारणसे कार्यका अनुमान कर लिया जाता है।
तत्परीक्षकलोकानां प्रसिद्धमनुमन्यताम् ।. . . . कारणं कार्यवद्धतुरविनाभावसंगतम् ॥ २३१ ॥
तिस कारण परीक्षकजनोंको यह बात प्रसिद्ध हो रही मीन लेनी चाहिये कि कार्यके समान अविनामावसे युक्त हो रहा कारण भी ज्ञापक हेतु बन जाता है।
एवं कार्योपलब्धि कारणोपलब्धि च निश्चित्य संमत्यकार्यकारणोपलब्धि विभियोदाहरनाहा
. इस प्रकार विधिको साधनेवाले उपलम्भ हेतुओं से कार्य-उपलम्म और कारण-उपलम्भ हेतुओंका निश्चयकर इस समय कार्य, कारणसे रहित उपलब्धिके विशेषभेदका उदाहरण दिखलाते हुए आचार्य महाराज स्पष्ट निरूपण करते हैं।