Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
जायगा ? बताओ। यदि वह संतान संयोग आदिकोंसे भिन्न है, सब तो गुणोंकी रूप १ रस २ गंध ३ स्पर्श ४ संख्या ५ परिणाम ६ पृथक ७ संयोग ८ विभाग ९ परत्व १० अपरत्व ११ गुरुत्व २ द्रवत्व १३ स्नेह १४ शद्व १५ बुद्धि १६ सुख १७ दुःख १८ इच्छा १९ द्वेष २० प्रयत्न २१ धर्म २२ अधर्म २३ संस्कार २४ इस वैशेषिकोंके यहां नियत हो रही चौवीस संख्याका विघात होता है । यदि द्वितीय पक्षके अनुसार संयोग आदिकोंमेंसे कोई एक व्यासज्यवृत्ति धर्मावच्छिन्न गुणको संतान मानोगे तब तो वह संतान सबसे पहिले संयोगस्वरूप तो हो नहीं सकता है । क्योंकि वह संयोगगुणवर्त्तमान कालमें विद्यमान हो रहे द्रव्योंमें वर्तता है । और संतान तो तीनों कालमें वर्तनवाले संतानियोमें भले प्रकार आश्रित हो रही है । अतः संयोगगुणस्वरूप संतान नहीं हुआ । तिस ही कारण विभागरूप भी संतान नहीं है । अर्थात् विभाग भी वर्त्तमान कालके अनेक द्रव्योंमें ठहरता है । किन्तु संतान तो तीनों कालके संतानियोंमें चारों ओर पग पसारकर रहनेवाला माना गया है । तथा परत्वगुणरूप भी संतान नहीं है। क्योंकि सहारनपुरसे काशी की अपेक्षा श्री सम्मेदशिखरक्षेत्र पर है । इस प्रकार वह परत्व भी देश आदिककी अपेक्षा रखता हुआ वर्त्तमानकालके द्रव्योंके आश्रित हो रहा है । किन्तु संतान तो तीनों कालके द्रव्य या पर्यार्यामें वर्तता हुआ माना गया है ।
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पृथक्त्वं इत्यप्यसारं, भिन्नसंतानद्रव्यं पृथक्त्वस्यापि संतानत्वप्रसंगात् । तत एवमसंख्योऽसौ । एतेन संयोगादीनां संतानत्वे भिन्नसंतानगतानामप्येषां संतानत्वप्रसंगः समापादितो बोद्धव्यः ।
अनेक पदार्थोंमें ठहरनेवाला संतान चलो पृथक्त्वगुणरूप हो जायगा, यह कहना भी सार रहित है। क्योंकि यों तो भिन्नसंतानवाले द्रव्योंमें ठहरनेवाले पृथक्त्वको भी संतानपनेका प्रसंग होगा । भावार्थ — देवदत्त से यज्ञदत्त पृथक् है, और देवदत्तकी पूर्व, उत्तरपर्यायें भी परस्पर में पृथक् हैं । ऐसी दशा में देवदत्त की पूर्व उत्तरसमयों में होनेवाली पर्यायोंके पृथक्त्वको यदि संतान मान लिया। जायगा तो यज्ञदत्त में सुलभतासे रहनेवाले पृथक्त्वको सम्मिलित कर देवदत्तकी संतान बन जानेका प्रसंग होगा । अतः पृथक्त्व गुणस्वरूप होता हुआ तो संतान सिद्ध नहीं हुआ । तिस ही कारण वह संतान अनेकोंमें रहनेवाली द्वित्व, त्रित्व, बहुत्व आदि संख्यास्वरूप भी नहीं है । अर्थात् भिन्नद्रव्य या भिन्नद्रव्यकी पर्यायोंमें रहनेवाली संख्याको मिलाकर भी प्रकृतद्रव्योंकी संख्याको संतान बन जानेका प्रसंग होगा । इस उक्त कथनसे यह भी भले प्रकार आपादन कर दिया गया समझलेना चाहिये कि संयोग, विभाग, आदिको संतान माननेपर भिन्नसंतानों में प्राप्त हो रहे भी इन संयोग आदिकों के संतान बन जानेका प्रसंग हो जावेगा । यों सन्तानियोंमें ठहरनेवाला गुणपदार्थ तो सन्तान बना नहीं ।