Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थलोकवार्तिके
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वायुबादलसंयोगका अभूतवर्षा हेतु है । बरसनेवाले बादलोंको भी वायु उडा देती है । इसी प्रकार नहीं उत्पन्न हो चुके स्फोट आदिक हेतुभूत मंत्रपाठके ज्ञापक लिङ्ग हैं। मंत्रपाठ कर देनेसे विषधर जीवके काटनेपर या अग्निसे पीडा, फोडा, फलक नहीं होते हैं । तथा भूतस्फोट आदिक हेतु अभूतमंत्रपाठके ज्ञापक हैं। मंत्र नहीं पढनेसे तो फोडा आदिक हो जाते हैं। इसी प्रकार हो चुका ( भूत ) वायु और मेघोंका संयोग अभूत (नहीं हो चुकी ) वर्षाका ज्ञापकहेतु है। अभूतमणि आदिके सन्निकटताका भूतदाह हेतु है । चन्द्रकान्तमणिके निकटवर्ती न होनेसे दाह हो चुकी है । नहीं तो दाहका प्रतिबंध हो जाता । तथा भूतलिङ्ग भूतसाध्यका ज्ञापक है । विद्यमान विरोधी जीवकरके विद्यमान हो रहे विरोधीका कहीं अनुमान हो जाता है। जैसे कि मुरझाये हुये सर्पको देखकर झाडीमें छिपे हुये नौलेका अनुमान हो जाता है। तथा अभूतसे यानी वर्षाके नहीं उपयोगी बादलोंसे अभूतवर्षाका अनुमान कर लिया जाता है । अच्छी मेघघटा नहीं होनेसे वर्षा नहीं हो सकी। किन्तु इन चारोंसे अतिरिक्त अभूत, उभय खभाववाले एक ही साध्य और हेतु भी देखे जाते हैं। जैसे कि औषधिके सेवनसे रोगके अभावका अनुमान करना । औषधिसे रोग दूर भी हो जाता है, नहीं भी होता है । विना औषधिके भी रोग दूर हो जाते हैं । अभिप्राय यह है कि यदि अन्यथानुपपत्ति नहीं है तो हेतुभेदोंका नियम करना व्यर्थ है, और यदि अन्यथानुपपत्ति है तो भी भेद, प्रभेद, करना निःसार है। हां, शिष्यकी बुद्धिको विशद करानेके लिये समुचित भेद करना उपयोगी है।
सर्वहेतुविशेषाणां संग्रहो भासते यथा । तथा तद्भेदनियमे द्विभेदो हेतुरिष्यताम् ॥ २०९ ॥ संक्षेपादुपलंभश्चानुपलंभश्च वस्तुनः। परेषां तत्पभेदत्वात्तत्रांतर्भावसिद्धितः ॥२१०॥
यदि संपूर्ण हेतुओंके भेदोंका संग्रह हो जाना जिस प्रकार प्रतिभासित हो जाय उस ढंगसे उस हेतुके भेदोंका नियम करना चाहते हो तब तो दो प्रकारके हेतु इष्ट करलो । अन्य टंटा बढाना व्यर्थ है । संक्षेपसे वस्तुका उपलम्भ होना और अनुपलम्भ होना ये दो भेद हेतुके करना अच्छा है। क्योंकि अन्य शेषभेदोंको उन दो भेदोंका ही प्रभेदपना हो जानेसे उन हीमें अन्तर्भाव करना सिद्ध हो जाता है।
- उपलब्ध्यनुपलब्ध्योरेवेति सर्वहेतुविशेषाणामंतर्भावः प्रतिभासते संक्षेपातेषां तत्मभेदत्वादिति तदिष्टिः श्रेयसी । न हि कार्यादयः संयोग्यादयः पूर्ववदादयो वीतादयो वा हेतुविशेषास्ततो भिद्यते तदप्रभेदत्वामतीतेः।