Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
उपलम्भ शब्द यदि माना जायगा तो उसका अर्थ कार्य हेतु हो जायगा । यही बात अनुपलम्भमें भी लगा लेना ।तिसकारण वह भी स्वभाव और कार्य हेतुओंसे भिन्न नहीं हो सकेगा। अनुपलम्भ शब्दको कर्मसाधन माननेपर उपलम्भ नहीं किया गयापन तो स्वभावहेतु हुआ और करणसाधन माननेपर तो अनुपलम्भका अनुपलब्धिमें अंतर्भाव हो जाता है । हम बौद्धोंके यहां विधिको साधने वाले कार्य और स्वभाव दो हेतु माने गये हैं । तया उन दोनोंसे न्यारा प्रतिषेधको विषय करनेवाला होनेसे तीसरा अनुपलम्भ हेतु इष्ट किया है । इस प्रकार बौद्धोंका कहना असंगत है। इस बातका आचार्य महाराज स्पष्ट कथन करते हैं।
यथा चानुपलंभेन निषेधोऽर्थस्य साध्यते ।
तथा कार्यस्वभावाभ्यामिति युक्ता न तद्विदा ॥ २१३॥
जिस प्रकार अनुपलम्भ करके अर्थका निषेध साधा जाता है, उसी प्रकार कार्य और स्वभावोंसे भी वस्तुका निषेध साधा जा सकता है । इस कारण अनुपलम्भका उन कार्य और स्वभावसे भेद करना युक्त नहीं है । भावार्थ-बौद्धोंके माने गये हेतुके तीन भेद ठीक नहीं है।
ननु च द्वौ साधनावेकः प्रतिषेधहेतुरित्यत्र द्वावेव वस्तुसाधनौ प्रतिषेधहेतुरेवैक इति नियम्यते न पुन वस्तुसाधनावेव ताभ्यामन्यव्यवच्छेदस्यापि साधनात् । तथा नैक एव प्रतिषेधहेतुरित्यवधार्यते तत एव यतो लिंगत्रयनियमः संक्षेपान व्यवतिष्ठत इति न तविभेदो हेतुरिष्यते तस्याव्यवस्थानादित्यत्राह
___पुनः बौद्धोंका अवधारण है कि हमारे यहां कहा गया है कि वस्तुविधिको साधनेवाले हेतु दो प्रकारके हैं और एक हेतु प्रतिषेधको साधनेवाला है। इस प्रकार इस कथनमें दोनों ही हेतु वस्तुको साधनेवाले हैं और एक हेतु प्रतिषेधको साधनेवाला ही है। इस प्रकार एवकार लगाकर नियम कर दिया जाता है। किन्तु फिर वस्तुकी विधिको ही साधनेवाले दो हेतु हैं, ऐसा नियम तो नहीं किया गया है। क्योंकि उन दो स्वभाव और कार्यहेतुओंसे अन्य पदार्योका व्यवच्छेद करना भी साधा जाता है। तथा एक ही हेतु निषेधका साधक है । यह भी हम अवधारण नहीं करते हैं। वही कारण होनेसे यानी निषेधसाधक हेतुप्ते अन्य किसी पदार्थकी विधि भी साधली जाती है, जिससे कि हम बौद्धोंके यहां संक्षेपसे तीन प्रकारके हेतुका नियम करना व्यवस्थित न होवे अर्थात् हमारे माने गये तीन हेतु ठीक हैं । इस प्रकार हेतुके जैनोंद्वारा माने गये उन उपलम्भ, अनुपलम्म दो भेदोंको हम इष्ट नहीं करते हैं। क्योंकि उनकी समीचीन-व्यवस्थिति नहीं हो सकी है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं।
निषेधहेतुरेवैक इत्ययुक्तं विधेरपि । सिद्धरनुपलंभेनान्यव्यवच्छिद्विधिर्यतः ॥ २१४ ॥