Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
होनेपर आकाशपुष्पके अभावका विरोध होजानेका प्रसंग आ जावेगा। बात यह है कि सभी वैधर्म्य दृष्टांतोंमें अधिकरणका आवश्यकरूपसे होनापन इष्ट नहीं किया है । अर्थात् पर्वत वहिवाला है, धूम होनेसे, यहां वैधर्म्यदृष्टान्त सरोवर मिल जाता है, किन्तु सम्पूर्ण पदार्थ अनेक धर्मस्वरूप हैं, सत् होनेसे, यहां अश्वविषाणके वैधHदृष्टान्त होते हुये भी वस्तुभूत अश्वविषाणरूप आधार विद्यमान नहीं है । फिर भी वैधर्म्यदृष्टान्त वह मान लिया गया है।
किं चेदं भिन्नप्रतिभासत्वं यदि कथञ्चित्तदान्यथानुपपन्नत्वादेव कथश्चिद्भेदसाधनं नान्वयित्वात् द्रव्यं गुणकर्म सामान्यविशेषसमवायप्रागभावादयः प्रमेयत्वात् पृथिव्यादि वदित्येतस्यापि गमकत्वप्रसंगात् । धर्मिग्राहकप्रमाणबाधितत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वान्नेदं गमकमिति चेत्, तबबाधितविषयत्वमपि लिंगळक्षणं तच्चान्यथानुपपन्नत्वमेवेत्युक्तं ।
एक बात हम नैयायिकोंसे पूछते हैं कि यह गुणगुणी आदिकोंमें सर्वथा भेदको साधनेवाला भिन्न प्रतिभासत्व हेतु यदि कथंचित न्यारा न्यारा प्रतिभास होनारूप है, तब तो अन्यथानुपपत्ति होनेसे ही गुण, गुणी, क्रिया, क्रियावान्, आदिमें कथंचित् भेदको साध देवेगा, जो कि हम जैनोंको इष्ट ही है । आत्मा ज्ञान, या चलना चलनेवाले, आदिमें कथंचित् भेद हमने स्वीकार किया है। हां, नैयायिकोंके विचार अनुसार केवलान्वयीपनेसे सर्वथा भेदको साधना आवश्यक न हुआ, फिर भी यदि अन्वयसहितपनेसे ही हेतु साध्यका ज्ञापक माना जावेगा तो गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और प्रागभाव, धंस, अन्योन्याभाव, अत्यन्ताभाव ये सम्पूर्ण भाव, अभाव पदार्थ (पक्ष) द्रव्यस्वरूप हैं ( साध्य), प्रमेय होनेसे ( हेतु ), जैसे कि पृथिवी, जल, तेज, आदिक पदार्थ द्रव्य माने गये हैं ( अन्वयदृष्टान्त ), इस अनुमानमें दिये गये प्रमेयत्व हेतुको भी अन्वयदृष्टांतवाला होनेसे ज्ञापकपका प्रसंग हो जावेगा । नैयायिक या वैशेषिकोंने गुण, कर्म, आदिमें द्रव्यपना इष्ट नहीं किया है । इसपर नैयायिक यदि यों कहें कि गुण, कर्म आदिकरूप पक्षको ग्रहण करनेवाले प्रमाणसे बाधित हो जानेके कारण कालात्ययापदिष्ट ( बाधित ) हो जानेसे यह हेतु गमक नहीं है, अर्थात् जो भी कोई प्रमाण गुण आदि पक्षको जानेगा वह द्रव्यसे मिनरूप ही उनको जानेगा तो फिर ऐसी दशा होनेपर गुण आदिमें द्रव्यपना साधना बाधित है । अतः प्रमेयत्व हेतु बाधित हेत्वाभास हुआ, इस प्रकार नैयायिकोंके कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि तब तो अबाधित विषयपना भी हेतुका लक्षण बन गया और वह ठीक अबाधितपना अन्यथानुपपत्तिरूप ही तो है । इस बातको हम पूर्वमें कह चुके हैं। __सत्पतिपक्षत्वान्नेदं गमकत्वमिति चेत्तर्हि असत्पतिपक्षत्वं हेतुलक्षणं तदप्यविना. भाव एवेति निवेदितं ततोन्यथानुपपन्नत्वाभावादेवेदमगमकं । - गुण, कर्म, आदिमें द्रव्यपनका निषेध साधनेवाला प्रतिपक्षी हेतु गुणवत्त्व या कर्मवत्त्व विद्यमान है । अतः सत्प्रतिपक्ष हेस्वाभास हो जानेसे यह प्रमेयत्व हेतु गमक नहीं है । इस प्रकार