Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
उस पंचरूपपनका निराकरण करना अभीष्ट सिद्धान्तसे ही अन्य नैयायिकोंका मत खंडित हो जाता है। दूसरोंका विरुद्ध मन्तव्य अपने अविरुद्ध अभिमतसे निषिद्ध कर दिया जाता है। तिस कारण इस प्रकरणमें हमारे चारों ओरके घोर प्रयत्नसे कुछ कर्तव्य शेष नहीं रहा है। दूसरों द्वारा की जा रही और हमको अभीष्ट हो रही बातका हमें आह्वान करना चाहिये । यहांतक बौद्धोंके त्रैरूप्य और नैयायिकोंके पांचरूप्यका खण्डन करदिया गया है।
हेतुलक्षणं वार्तिककारेणैवमुक्तं " अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्" इति खयं स्याद्वादिना तु तनिराकरणप्रयत्ने त्रयं पंचरूपत्वं किमित्यपि वक्तुं युज्यते ।
राजवार्तिकको बनानेवाले श्रीअकलंकदेवने हेतुका लक्षण इस प्रकार ही कहा है कि जहां अन्यथानुपपत्ति विद्यमान है उस हेतुमें तीनरूपों करके क्या प्रयोजन सधता है ! अर्थात् कुछ नहीं और जिस हेतुमें अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहां तीन रूपोंके बोझ होनेपर भी इष्टसिद्धि नहीं हो पाती है। ऐसे ही पांचरूपोंमें लगा लेना। इस प्रकार स्याद्वादियोंके यहां स्वयं उन रूपोंके निराकरण करनेका प्रयत्न होनेपर वह तीनरूपपना या पांचरूपपना क्या कर सकता है ? यानी कुछ नहीं, यह भी कहनेके लिये युक्त पड जाता है । इस विषयको अब यहां परिपूर्ण करते हैं।
साम्प्रतं पूर्ववदादित्रयेण वीतादित्रयेण वा किमिति व्याख्यानांतरं समर्थयितुं प्रत्यक्ष पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं चेति न्यायसूत्रस्य वाक्यभेदात्रिसूत्री कैश्चित् परिकल्पिता स्यात् तामनूद्य निराकुर्वनाहा
___ इस समय पूर्ववत् ( केवलान्वयी) शेषवत् ( केवलव्यतिरेकी ) और सामान्यतो दृष्ट ( अन्वयव्यतिरेकी ) इन तीनरूपकरके अथवा वीत, अवीत, और वीतावीत इन तीन भेदोंकरके कुछ भी दूसरे व्याख्यानको समर्थन करनेके लिये किन्हीं टीकाकारने न्यायसूत्रका उल्लेख कर यह कल्पना की है कि गौतमके बनाये हुये न्यायदर्शनका पांचवां सूत्र " अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतो दृष्टं च " इस सूत्रके वाक्योंका भेद हो जानेसे १ पूर्ववत् शेषवत् २ शेषवत् सामान्यतो दृष्ट, ३ पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतो दृष्ट, इस प्रकार एक सूत्रमें योगविभागकर तीन सूत्रोंका समाहार किन्हीं विद्वानों द्वारा कल्पित किया जा सकता है । उस कल्पनाका अनुवाद कर निराकरण करते हुये आचार्य महाराज स्पष्ट कथन करते हैं ।
पूर्व प्रसज्यमानत्वात् पूर्वः पक्षस्ततोपरः। शेषः सपक्ष एवेष्टस्तद्योगो यस्य दृश्यते ॥ १९६ ॥ पूर्ववच्छेषवत्प्रोक्तं केवलान्वयिसाधनम् । साध्याभावे भवत्तच त्रिरूपान्न विशिष्यते ॥ १९७ ॥