Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः ।
३०१
mroman
न वेद्यवेदकाकारविवेकोतः स्वसंविदः। सर्वकार्येष्वशक्तस्य सत्त्वसंभवभाषणे ॥ १७१ ॥
अपने उचित सभी कार्योंमें अशक्त हो रहे पदार्थका चाहे कहीं सद्भाव बखानते हुये श्राप बौद्ध प्रकट हो रहे सम्पूर्ण कार्योंके करनेमें असमर्थ ऐसे गुप्तचैतन्यकी सत्ताका यदि भस्म आदिमें सम्भवना कहते रहोगे तो बौद्धोंके यहां स्वसंवेदनज्ञानका इस वेद्याकार और वेदकाकारसे पृथग्भाव नहीं सिद्ध हो सकेगा । भावार्थ-विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध सर्वत्र ज्ञानका सद्भाव मानेंगे, तब तो ज्ञानमें एक दूसरेकी अपेक्षासे वेद्यवेदकपना ( विचिर् विचारणे ) प्राप्त हो जायगा । शुद्ध ज्ञानाद्वैतवादी वैभाषिक स्वसंवेदनमें वेद्य, वेदक, वित्ति, अंशोंका पृथक्भाव ( विचलुच पृथग्भावे ) मानोगे तो भी शुद्धज्ञानकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। क्योंकि वेद्य आदि अंश भी वहां गुप्तरूपसे सम्भव हो सकेंगे।
न संति चेतनेष्वचेतनास्तबेदनादिकार्यासस्यात् । तथा च न संत्यचेतनार्थेषु चेतनास्तित एवेति चेतनाचेतनविभागो न सिद्धयत्येव सर्वकार्यकरणासमानां तेषां तत्र निषेध्दुमशक्तेः।।
चेतनपदार्थोमें अचेतनपदार्थ नहीं है । क्योंकि उनके वेदन, सुख, दुःख अनुभव आदि कार्य वहां अचेतनोंमें नहीं पाये जाते हैं । तिस ही प्रकार अचेतन अर्थोंमें चेतनपदार्थ भी नहीं हैं। क्योंकि तिस ही कारण उनके न्यारे न्यारे कार्य परस्परमें नहीं देखे जाते हैं। इस प्रकार हो रहा चेतन और अचेतन पदार्थोका विभाग तो बौद्धोंके यहां सिद्ध ही नहीं हो पाता है। क्योंकि सम्पूर्ण कार्योंके करनेमें असमर्थ हो रहे उन चैतन्योंका उन अोंमें निषेध करनेके लिये अशक्ति है।
चेतनार्था एव संतु तथा विज्ञानवादावताराज्जडस्य प्रतिभासायोगादिति चेन, तथा विज्ञानसंतानानां नानात्वापसिद्धेः। कचिच्चित्तसंताने तेषां संतानांतराणां सर्व कार्यकरणासपर्थानां स्वकार्यासत्त्वेपि सत्त्वाविरोधात् ।
विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध कहते हैं कि जगत्मरमें चेतन अर्थ ही रहे कोई भी पदार्थ अचेतन नहीं है। क्योंकि तिस प्रकार सर्वत्र विज्ञानवादका अवतार हो रहा है। जड पदार्थका तो प्रतिभास होना अयुक्त है। घटः प्रतिभासते, घट प्रतिभास रहा है, इस प्रयोगके अनुसार घटमें प्रतिभासरूप जानकी अधिकरणता-पायी जाती है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि तिस प्रकार माननेपर बौद्धोंके यहां विज्ञानकी संतानोंका अनेकपना प्रसिद्ध नहीं हो सकेगा। किसी प्रकृत एक संतानमें सम्पूर्ण दृश्यमान कार्योंके करनेमें असमर्थ हो रहे अन्य संतानोंके निजका कोई कार्य न होते हुये भी उनके सद्भावका कोई विरोध नहीं है । तुम्हारे विचार अनुसार सर्वत्र सबका सद्भाव सम्भवनीय है।