Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
बनाये हुये भोजनमें विषकी सत्ता मानकर या संदेह कर प्रवृत्ति करनेवाले संशय एकान्तवादियों के समान इस विद्वान्को भी कहीं कल नहीं पडेगी। " संशयात्मा विनश्यति" बैठने, उठने, खाने, पीने आदि सभीमें कठिनाई उपस्थित हो जायगी।
. यथा हि सर्वकारणासमर्थ चैतन्य कार्याभावाद्भस्मादौ निषेदुमशक्यं तथा कूटस्थमपि क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् ।
जिस ही प्रकार संपूर्ण कार्योके करनेमें असमर्थ हो रहे चैतन्यका भस्म आदिमें कोई कार्य नहीं दीखनेके कारण निषेध करनेके लिये अशक्यता प्रगट करोगे अथवा भस्म, मृतशरीर आदिमें वचन, श्वास, आदि कार्योंको करनेवाले चैतन्यका अभाव है । किन्तु सभी कार्योके करनेमें असमर्थ हो रहे चैतन्यका निषेध नहीं किया जा सकता है। यदि बौद्ध यों मानोगे तब तो उसी प्रकार कूटस्थपनका भी भस्म, आत्मा, शब्द आदिकमें क्रम और युगपत् ( एक साथ ) पनेसे अर्थक्रियाका विरोध हो जानेके कारण निषेध नहीं कर सकोगे। अर्थात्-ब्रह्माद्वैतवादियोंके समान यदि बौद्ध भी भस्म ( राख ) में चैतन्य मानने लगेंगे तो उन्हींके समान कूटस्थपना भी हो जायगा । ऐसी दशामें खेतमें प्राप्त हुई भस्म अब खात होकर करब, नाजरूपपर्यायोंको नहीं धारण कर सकेगी। दूसरे नित्यवादियोंका अनुकरण करनेसे बौद्धोंके यहां क्षणिकपनकी रक्षा कैसे होगी ! ।
क्षणिकत्वेन न व्याप्तं सत्त्वमेवं प्रसिद्धयति । संदिग्धव्यतिरेकाच्च ततोसिद्धिः क्षणक्षये ॥ १६९ ॥
इस प्रकार कूटस्थ हो जानेपर सत्त्व हेतु क्षणिकपनके साथ व्याप्त हो रहा नहीं प्रसिद्ध होता है। क्योंकि यहां व्यतिरेकका संदेह हो गया है । क्षणिकत्त्वरूप साध्य के अभाव होनेपर भी कूटस्थ नित्यमें सत्त्वहेतुका ठहर जाना सम्भव रहा है । तिस कारण बौद्धोंके यहां पदार्थोके क्षणिकपनकी सिद्धि होनेका अभाव हुआ।
चेतनाचेतनार्थानां विभागश्च न सिद्धपति । चित्तसंताननानात्वं निजसंतान एव वा ॥ १७० ॥
दूसरी बात यह है कि इस ढंगसे बौद्धोंके यहां चेतन और अचेतन अर्थाका विभाग करना नहीं सिद्ध होता है। क्योंकि अचेतन पदार्थोंमें भी चैतन्यका सद्भाव आपने मान लिया है। चेतनोंमें भी अचेतनपन संभव जायगा तथा विज्ञानरूप चित्तोंकी अनेक संतानें नहीं बन सकेंगी। क्योंकि जिनदत्तके पहिले पीछेके ज्ञान परिणामोंमें भी इन्द्रदत्तके ज्ञान परिणाम भी अन्तःप्रविष्ट हो रहे मानलिये जा सकेंगे अथवा अपना निजका कोई संतान ही नहीं बन सकेगा। सर्वत्र अन्य संतानोंके संतानी परिणाम घुस पडेंगे।