Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
पर्वतमें अग्निको साधने के लिये दिया गया अग्नित्व हेतु सद्धेतु नहीं है । अग्नित्व अग्निमें रहता है
और साध्यको पर्वतमें साधा गया है । अतः आग्नित्व असिद्ध हेत्वाभास है। भले ही आग्निरूप साध्यसे अन्य घट, पट, पुस्तक आदि विपक्षोंमें अग्नित्व नहीं रहता है । और साध्याभावरूप विपक्षमें भी अग्नित्वका नहीं रहना निश्चित नहीं सम्भव है । अतः विपक्षव्यावृत्ति होते हुये भी अग्नित्व सद्धेतु नहीं बना तथा साध्यसे विरुद्ध हो रहे विपक्षमें भले ही धूम आदिकी सत्ताका निश्चय न होय, किन्तु अग्निके न होनेपर धूमका नहीं होना जबतक निश्चित नहीं होगा, तबतक धूम आदिक भी अग्निको साधनेवाले नहीं माने जायंगे । अतः असिद्ध धूमहेतुमें भी आप बौद्धोंकी मानी गई विपक्षव्यावृत्ति व्यर्थ पड़ी । अविनाभावका निश्चय हुये विना विपक्षव्यावृत्तिका कुछ भी मूल्य नहीं है।
ननु च साध्यविरुद्धो विपक्षःसाध्याभावरूप एव पर्युदासाश्रयणात प्रसज्यप्रतिषेधाश्रयणे तु तदभावस्तविरुद्धादन्य इति साध्याभाव विपक्ष एव विपक्षे हेतोरसत्त्वनिश्चयो व्यतिरेको नान्य इत्यत्रोच्यते:
बौद्धोंका अनुनय है कि उससे मिन उसके सदृशको पकडनेवाले और पदके साथ नका योग रखनेवाले पर्युदासका आश्रय करनेसे साध्यसे विरुद्ध हो रहा विपक्ष साध्याभावस्वरूप ही है। तथा सर्वथा निषेधको करनेवाले और क्रियाके साथ नका योग धारनेवाले प्रसज्य अभावका आश्रय लेनेसे तो उस साध्यका अभाव उसके विरुद्धसे अन्य हो जायगा । इस प्रकार साध्याभाव ही विपक्ष हुआ और विपक्षमें हेतुके नहीं विद्यमानपनका निश्चय कर लेना व्यतिरेक है । इससे न्यारा कोई व्यतिरेक नहीं माना गया है । अर्थात् साध्यके नहीं रहनेपर हेतुका नहीं रहना व्यतिरेक है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर अब यहां आचार्य कहते हैं कि
साध्याभावे विपक्षे तु यो सत्त्वस्यैव निश्चयः । सोऽविनाभाव एवास्तु हेतो रूपात्तथाह च ॥ १७९ ।। अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ १८० ॥
साध्यका अभावरूप विपक्षमें जो हेतुकी असत्ताका निश्चय है, यदि यही तृतीय पक्षके अनुसार व्यतिरेक है, तब तो वह अविनाभाव ही हो जाओ। हेतुका रूप अविनाभावसे न्यारा अन्य कुछ नहीं है । और तिसी प्रकार महान् आत्माओंने कहा है कि जहां अन्यथानुपपत्ति विद्यमान है, वहां पक्षवृत्ति, सपक्षमें वर्तना और विपक्षमें नहीं रहना, इन तीन रूपोंसे क्या लाभ निकलेगा ! अर्थात् कुछ नहीं, अकेली अन्यथानुपपत्ति ही पर्याप्त है । और जहां अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहां