Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
का पुनः संबंधस्यार्थक्रिया नाम ।
बौद्ध फिर पूछते हैं कि संबंधकी वह अर्थक्रिया भला कौनसी है ? जिसका कि योग सबंधमें मानकर तुम जैनोंका हेतु असिद्धदोषसे बच सके । इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं।
येयं संबंधितार्थानां संबंधवशवर्तिनी । सैवेष्टार्थक्रिया तज्ज्ञैः संबंधस्य स्खधीरपि ॥ ८७ ।।
संबंधके अधीन होकर वर्त रही जो यह अर्थोकी संबंधिता है, वही संबंधकी अर्थक्रिया उस संबंधके वेत्ता विद्वानोंने अभीष्ट की है । तथा संबंधका ज्ञान करा देना भी संबंधकी गांठकी अर्थक्रिया है । जगत्में असंख्य पदार्थ ऐसे पडे हुये हैं, जो कि हमारे लिये या अन्य जीवोंके लिये कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं करा रहे हैं । एतावता नैयायिकोंकी नीतिके अनुसार उनका अभाव कह देना हम जैनोंको अभीष्ट नहीं है । वे पदार्थ भी अपने योग्य अर्थक्रियाओंको कर रहे हैं। अपने विषयमें सर्वज्ञका ज्ञान करा देना इस सर्व सुलभ अर्थक्रिया कर देनेको भला उनसे कौन छीन सकता है ? । कतिपय औषधियोंको मिलाकर विशिष्ट रोगको दूर किया जाता है । मद्यका शरीरमें बंध हो जानेसे मनुष्य उन्मत्त हो जाता है । ये सब सम्बन्धसे होनेवाली अर्थक्रियायें हैं। ___ सति संबंधेर्थानां संबंधिता भवति नासतीति तदन्वयव्यतिरेकानुविधायिनी या प्रतीता सैवार्थक्रिया तस्य तद्विद्भिरभिमवा यथा नीलान्वयव्यतिरेकानुविधायिनी कचिबीलता नीलस्यार्थक्रिया तस्यास्तत्साध्यत्वात् । संबंधज्ञानं च संबंधस्यार्थक्रिया नीलस्य नीलज्ञानवत् । तदुक्तं । मत्या तावदियमर्थक्रिया यदुत स्वविषयविज्ञानोत्पादनं नामेति।
वस्तुभूत संबंधके होनेपर ही घृत जल या दही गुड अथवा आत्मा कर्म एवं विष शरीर, आदि अर्योका संबंधीपना होता है । संबंधके न होनेपर या कल्पित संबंधके होनेपर संबंधीपना नहीं है । इस प्रकार उस संबंधके अन्वयव्यतिरेकका अनुसरण करनेवाले संबंभीपनकी प्रतीति हो रही है । उस संबंधका अन्तस्तल स्पर्श करनेवाले विद्वानोंने उस संबंधकी अर्थक्रिया वही संबंधीपन अभीष्ट किया है । जैसे कि किसी नील रंगसे रंगे हुये वस्त्रमें नीलके साथ अन्वयव्यतिरेकका अनुविधान करनेवाली नीलता ही नीलरंगकी अर्थक्रिया है। क्योंकि वह कपडेमें नीलापन नीलरंगसे ही साधने योग्य कार्य है। तथा नीलका ज्ञान करादेना भी जैसे नीलकी अर्थक्रिया है, वैसे ही संबंधका ज्ञान करादेना मी संबंधकी अर्थकिया है। वही अन्य ग्रन्थोंमें कहा है कि सबसे पहिले पदार्थोकी अर्थक्रिया यह है, जो कि अपने स्वरूप विषयमें अन्यकी बुद्धियों द्वारा विज्ञान उत्पन्न करादेना है । भला इस सुलभ अर्थक्रियाको करने में कौन किसको रोक सकता है ! कोई क्रोधी राजा अपराधरहित जीवको कारागृह (जेलखाने ) में ढूंस सकता है। किन्तु सज्जनके
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