Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वत् । तेन यदा कृतषट्त्रिंशत्त्रिशतभेदमाभिनिबोधिकमुच्यते तदाभिनिबोधसामान्यं विज्ञायते, यदात्ववग्रहादिमतिविशेषानभिधाय ततः पृथगभिनिबोध इत्युच्यते तदा स्वार्थानुमानमिति इन्द्रियानिन्द्रियाभ्यां नियमितस्यासर्वपर्यायद्रव्यं प्रत्यभिमुखस्य बोधस्यास्याभिनिबोधिकव्यपदेशादभिनिबोध एवाभिनिबोधिकमिति स्वार्थिकस्य उणो विधानात् । न च तदनिन्द्रियेण लिंगापेक्षेण नियमितं साध्यार्थाभिमुखं बोधनमाभिनिबोधिकमिति विरुध्यते, तल्लक्षणवाक्ये वाक्यांतरोपप्लवात् ।
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यहां शंका है कि पूर्व आचार्योंने सामान्यरूपसे सभी मतिज्ञानोंको अभिनिबोध अच्छा कहा है । श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी " अमिमुहणियमियवोहणमाभिणिवोहणमणिदियेंदिजयम् " इस गाथासे इन्द्रिय, अनिन्द्रियों करके उत्पन्न होनेवाले सभी मतिज्ञानोंको अभिनिबोध कहा है । किन्तु उस मतिज्ञानका विशेषभेद स्वार्थानुमान ही तो फिर अभिनिबोध नहीं है, जो कि यहां कहा जा रहा है । आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो ठीक नहीं है । क्योंकि विशेष प्रकरण होनेसे अथवा अन्य शब्दोंके सन्निकट होनेसे या तात्पर्य आदिसे सामान्य शब्दकी विशेष अर्थों में प्रवृत्ति होना दीख रहा है। जैसे कि वाणी, दिशा, पृथ्वी, वज्र, किरण, पशु, नेत्र, स्वर्ग, जल, बाण, रोम, इन ग्यारह अर्थोंमें सामान्यरूपसे प्रवर्त रहा गो शब्द प्रकरणविशेष होनेपर गौ या वाणीको विशेष रूपसे कहने लग जाता है । कचित् विशेष शब्द भी सामान्यका वाचक हो जाता है । वायुके घुस जानेपर शद्ब करनेवाले छेदोंसे सहित हो रहे विशेष जातिके बांसोंको कीचक कहते हैं । किन्तु मारुतपूर्ण र ऐसा विशेषण लगा हुआ होनेपर कीचक शद्वका अर्थ सामान्य बांस हो जाता है । तिस कारण जब किये गये तीन सौ छत्तीस भेदवाला अभिनिबोध कहा जाता है, तब तो सामान्य मतिज्ञान ही अभिनिबोध समझा जाता है । किन्तु जब मतिज्ञानके विशेष भेद अवग्रह, SET, आदिको कह चुकनेपर उन अवप्रह आदिकोंसे न्यारा अभिनिबोध ऐसा कहा जाता है, तब तो अभिनिबोधका अर्थ स्वार्थानुमान किया जाता है । इस प्रकार इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे नियमित हो रहे तथा थोडीसी पर्याय और सम्पूर्ण द्रव्योंके प्रति अभिमुख हो रहा बोध है, इसको आभिनिबोधिक ऐसा नामनिर्देश किया गया है। अभिमुख नियमित बोध ही तो आमिनिबोधिक है । इस प्रकार स्वार्थ में ही किये गये ठण प्रत्ययका विधान है। ठणको इक आदेश हो जाता है। जो ही प्रकृतिका अर्थ है, वही स्वार्थमें किये गये प्रत्ययोंसे युक्त हुये पदका अर्थ है । वह अनुमानरूप अभिनिबोध ज्ञापक लिंगकी अपेक्षा रखनेवाले मनकरके विचारद्वारा नियमित हो रहे साध्यरूप अर्थके अभिमुख होकर बोध करना आभिनिबोधिक है । यह विरुद्ध नहीं पडता है । क्योंकि उस अभिनिबोधका लक्षण करनेवाले वाक्यमें दूसरे वाक्यका प्रवाह बहा दिया जाता है । भावार्य - " इन्द्रिया निंद्रियजन्यं" इस लक्षणका अर्थ इन्द्रिय अनिन्द्रिय दोनोंसे उत्पन्न होना यह तो सामान्य मतिज्ञानमें
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