Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तचार्य लोकवार्तिके
नन्दिमन्यथानुपपन्नत्वं नियतं संबंधेन व्याप्तं तदभावे तत्संभवेतिप्रसंगात् । सोपि तादात्म्यतज्जन्मभ्यामतादात्म्यवतोऽतज्जन्मनो वा संबंधानुपपत्तेः । ततः कृत्तिकोदयादौ साध्ये न तादात्म्यस्य तदुत्पत्तेर्वा वैधुर्ये कुतः संबंधस्तदभावे कुतोन्यथानुपपन्नत्वनियमो येन स गमको हेतुः स्यादिति व्यापकानुपलंभो बाधकस्तत्र लोकानुरोधस्य प्रतीयते ।
यहां शंका करता हुआ कोई वादी बाधक प्रमाणको उपस्थित करता है कि यह नियत हो रहा अन्यथानुपपत्तिसहितपना तो संबंधरूप व्यापकसे व्याप्त हो रहा है । उस संबंध के न होनेपर अन्यथानुपत्ति यदि सद्भाव माना जायगा तो अतिप्रसंग हो जावेगा अर्थात् संबंध से रहित आकाश और पुष्प या आत्मा और रूप तथा पुद्गल और ज्ञान आदिमें भी अन्यथानुपपत्ति बन बैठेगी, जो कि किसीको इष्ट नहीं है । वह संबंध भी तादात्म्य और तदुत्पत्तिनामक दो संबंधोंसे ही व्याप्त
रहा है । जगत् वास्तविक संबंध दो ही हो सकते हैं, जो पदार्थ तादात्म्य संबंधवाला नहीं है, अथवा तदुत्पत्ति संबंधवाला नहीं है, उसके अन्य कोई भी संबंध नहीं बन पाता है । तिस कारण कृत्तिकोदय या चींटियोंका सम्मूर्च्छन शरीररूप अण्डा लेकर संचार करना आदि हेतुओं में अपने साध्य के साथ तादात्म्य और तज्जन्यत्वनामक संबंध के विछुड जानेपर कहांसे संबंध भला बन सकता है ? व्यापक के नहीं रहने से व्याप्य भी नहीं रहता है । तादात्म्य और तदुत्पत्तिका अन्यतरपना व्यापक है और संबंध व्याप्य है तथा उस संबंध के न होनेपर अन्यथानुपपत्तिरूप नियम भी कैसे ठहरेगा ? अर्थात् नहीं ठहरता है । व्यापकके विना व्याप्यकी स्थिति नहीं है । जिससे कि वह कृत्तिकोदय हेतु शकटोदय साध्यका गमक हो जाता अर्थात् तादात्म्य और तदुत्पत्ति न होनेसे कृत्तिकोदय में कोई संबंध नहीं और संबंध न होनेसे अन्यथानुपपत्ति नहीं, इस कारण कृत्तिकोदय कोई चौथा हेतु नहीं है । इस प्रकार व्यापकका अनुपलम्भ वहां लोककी अनुकूलताका बाधक प्रतीत हो रहा है ।
कृतिकोदयादेर्गमकत्वं हेतुत्वनिबंधनं तदेवान्यथानुपपन्नत्वं साधयति तदपि संबंध सोपि तादात्म्यतज्जन्मनोरन्यतरं । तत्र तदुत्पत्तिर्वर्त्तमान भविष्यतोः कृत्तिकोदयशकटोदययोः परस्परमन्वयव्यतिरेकानुविधानासंभवान्न युज्यत एव तादात्म्यं तु व्योम्नः शकटोदयवत्वे साध्ये कृत्तिकोदय वस्त्रं शक्यं कल्पयितुं साधनधर्ममात्रानुबंधिनः साध्य धर्मस्य तदात्मत्वोपपत्तेः । यत एव बाह्यालोकतमोरूपभूतसंघातस्य व्योमव्यवहारार्हस्य कृत्तिकोदयवत्वं तत एव भविष्यच्छकटोदयवत्त्वं हेत्वन्तरानपेक्षत्वादेः सिद्धं न तन्मात्रानु धित्वमनित्यत्वस्य कृतकत्वमात्रानुबंधित्ववदिति केचितान् प्रत्याह ;
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वाद अभी कहते जा रहे हैं कि कृतिकोदय आदिको साध्यका गमकपना हेतु - पनका कारण है, और वही अन्यथानुपपन्नत्वको साध रहा है । तथा वह भी अन्यथानुपपत्ति तो संबंधको जता रही है । तथा वह संबंध भी तादात्म्य और तदुत्पत्ति दोनोंमेंसे किसी भी एकको
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