Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
२८९
पत्र ( कागज ) के फूलोंसे गन्ध नहीं आती है, इत्यादिके समान सभी प्रकार कल्पित कर लिया गया सात भंगरूप अर्थ तो प्रमाणोंका गोचर कैसे भी नहीं है । जिससे कि उन सात धर्मोके भेदसे हेतुका सात प्रकार से आपदन किया जा सके अर्थात् कार्य, स्वभाव, हेतुके मान चुकनेपर हमारे ऊपर सात हेतुओं के मान लेनेका अनुचित प्रभाव ( दबाव ) डाला जाय, इस प्रकार बौद्धोंके कथन करनेपर आचार्य महाराजको उत्तर देने के लिये बाध्य होना पडता है ।
नानादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितः ।
भावाभावो भयाद्यर्थः स्पष्टं ज्ञानेवभासनात् ॥ १५१ ॥
8 अवक्तव्य
१ भाव ( अस्तित्व ) २ अभाव ( नास्तित्व ) ३ उभय ( अस्तिनास्ति ५ अस्तिवक ६ नास्ति अवक्तव्य ७ अस्तिनास्ति अवक्तव्य इन सात धर्मोसे तदात्मक हो रहा अर्थ वस्तुभूत है । बौद्धोंके मन्तव्य अनुसार अनादिकालकी वासनाओंसे उत्पन्न हो गई कोरी कल्पनाओं में गढ़कर बैठा लिया गया नहीं है । क्योंकि प्रमाणज्ञान में स्पष्टरूपसे अस्तित्व आदि धर्मस्वरूप अर्थका प्रकाश हो रहा है ।
शद्वज्ञानपरिच्छेद्यपि पदार्थो स्पष्टतयावभासमानोपि नैकांततः कल्पनारोपितः स्वार्थक्रियाकारित्वान्निर्बाधमनुभूयते किं पुनरध्यक्षे स्पष्टमवभासमानो भावाभावो भयादिर्य इति परमार्थ सन्नेव ।
आप्तपुरुष के दो शब्दों से उत्पन्न हुये ज्ञान द्वारा जान लिया गया भी पदार्थ चाहे वह भलें ही अविशदरूपसे प्रतिभासमान हो रहा है, तो भी एकान्तरूपसे कल्पनासे गढ लिया गया नहीं है । 'क्योंकि अपनेसे की जाने योग्य वास्तविक अर्थक्रियाओंको कर रहा है। अतः शब्दके वाच्य अर्थका भी जब बाधारहित होकर अनुभव किया जा रहा है, तो फिर प्रत्यक्षज्ञानमें स्पष्टरूपसे प्रकाशित हो रहा भाव, अभाव, उभय आदि धर्मस्वरूप अर्थका तो कहना क्या है । अर्थात् प्रत्यक्ष से स्पष्ट जान लिया गया अर्थ तो बड़े अच्छे ढंग से वस्तुभूत हो जाता है । इस प्रकार अस्तित्व आदिक धर्मोसे तदात्मक हो रहा अर्थ परमार्थरूपसे यथार्थ विद्यमान ही है । कोरी कपोलकल्पनासे ढोंग नहीं बनाया है । अतः " अनादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितः । शद्वार्थस्त्रिविधो धर्मो भावाभावो - याश्रित: " यह बौद्धोंका कथन ठीक नहीं है ।
87
भावाभावात्मको नार्थः प्रत्यक्षेण यदीक्षितः ।
कथं ततो विकल्पः स्यादुभावाभावावबोधनः ॥ १५२ ॥ नीलदर्शनतः पीतविकल्पो हि न ते मतः । भ्रान्तेरन्यत्र तत्त्वत्स्य व्यवस्थितिमभीप्सतः ॥ १५३ ॥