Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणि
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है, उसका भी भाव आदिके दर्शनसे उत्पन्न होनापन स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ही क्यों नहीं सिद्ध हो जावेगा ? सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है। ऐसी दशामें स्वसंवेदन प्रत्यक्षके अनुसार भाव आदिका प्रत्यक्ष होना बौद्धोंको प्राप्त हो गया।
तदयं नीलाद्यर्थं पारमार्थिकमिच्छन्भावाद्यवितथोपगंतुमर्हत्येवेति तदनुमाने सप्तहेतवः स्युः । यतवं कृत्तिकोदयादेः कथंचित्पतीत्यतिक्रमेण स्वभावहेतुत्वं ब्रुवतः सर्वः स्वभावहेतुः स्यादेक एव । संबंधभेदात्तनेदं साधयतः सामान्यतो विशेषतश्च खेष्टलिंगसंख्याततिः। विषयभेदाच्च तद्भेदमिच्छतः सप्तविधो हेतुरर्थस्यास्तित्वादिसप्तरूपतयानुमेयत्वोपपत्तेः ।
तिस कारण नील आदि अर्थोको वस्तुभूत चाहता हुआ यह बौद्ध भाव आदिक सात धर्मोको सत्यार्थरूप स्वीकार कर्नेके लिये योग्य हो जाता ही है। इस प्रकार उन सात धोके अनुमान करानेमें विशेषरूपसे सात हेतु हो जावेंगे । जिस कारण कि इस प्रकार प्रतीतिका अतिक्रमण करके आकाशको पक्ष गढकर कृत्तिकोदय, भरण्युदय, आदिको स्वभावहेतुपना कह रहे बौद्धोंके यहां यों तो सभी ज्ञापक हेतु स्वभाव हेतु हो जायेंगे, तब तो हेतुका भेद एक स्वभाव नामका ही मान लेना चाहिये । यदि जन्यजनकसंबंध और तादात्म्यसंबंध तथा प्रतियोगित्वसंबंधके भेदसे उस ज्ञापक हेतुके कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धि, इन तीन भेदोंकी सिद्धि करोगे तब तो सामान्य और विशेषरूपसे स्वयम् इष्ट की गयी हेतुसंख्याकी क्षति उठानी पडेगी। क्योंकि छत्र आदि कारण हेतुओंमें तथा व्याप्य, पूर्वचर, सहचर, भावसाधक अनुपलब्धि, अमावसाधक उपलब्धि आदि हेतुके भेदोंमें भी जनकजन्यसंबंध, व्याप्यव्यापकसंबंध, पूर्वोत्तरकालसंबंध, आदि संबंधोंके भेद होनेसे यों अनेक हेतु बन जावेंगे । तथा विषयोंके भेदसे उस हेतुके भेदोंको इष्ट कर रहे बौद्धके यहां सात प्रकारका हेतु सिद्ध हो जावेगा। क्योंकि अस्तित्व आदिक सात धर्मरूप करके अर्थका अनुमेयपना बन रहा है।
तस्मात्प्रतीतिमाश्रित्य हेतुं गमकमिच्छता । पक्षधर्मत्वशून्योस्तु गमकः कृत्तिकोदयः ॥ १५७ ॥ .
तिस कारण प्रमाणोंसे प्रसिद्ध हो रही प्रतीतिका आश्रय कर हेतुको ज्ञापकपना चाहनेवाले बौद्धोंकरके पक्षमें वृत्तिपनसे रहित होता हुआ भी कृत्तिकोदय हेतु उत्तरकालमें होनेवाले शकटोदय साध्यका या पूर्वकालमें हो चुके भरण्युदय साध्यका ज्ञापक हो जाओ । अतः हेतुका पक्षमें वृत्तिपना लक्षण ठीक नहीं है । अव्याप्ति दोष हुआ। तभी तो हमने एकसौ तीसवीं " उदेष्यति मुहूर्तान्ते" इस वार्तिकमें ठीक कह दिया था।