Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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प्रत्यभिज्ञानको अनुमानस्वरूप माननेपर हम प्रमाण कहते हैं । अन्य दूसरे प्रकारोंसे नहीं यानी प्रत्यभिज्ञान स्वतंत्र प्रमाण नहीं है, किन्तु अनुमानमें गर्मित है। आचार्य कहते हैं कि सो यह कहना भी युक्त नहीं है । क्योंकि ऐसा होनेपर अनुमानप्रमाणकी उत्पत्तिके अभावका प्रसंग होता है । क्योंकि उस अनुमानमें " यह वही हेतु है " या उसके सदृश हेतु है " जिसको कि हम दृष्टान्तमें सांध्य के साथ व्याप्ति रखनेवाला जान चुके हैं। इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान कारण है । अतः इस प्रत्यभिज्ञानको पुनः अनुमान मानोगे तो उस अनुमानमें भी यह वही हेतु है, ऐसे प्रत्यभिज्ञानकी आकांक्षा होगी और उस प्रत्यभिज्ञानको भी अनुमान माननेपर ऐसी धारा चलते चलते अनवस्था दोष हो जानेका प्रसंग होता है। हेतुका प्रत्यभिज्ञान किये विना लिङ्गजन्य अनुमान ज्ञानका उत्थान नहीं हो पाता है । अतः अनवस्था दोष के निवारणार्थ वह लिंगका परामर्श करनारूप प्रत्यभिज्ञान यदि अनुमानसे सर्वथा अछूता भिन्न प्रमाण माना जावेगा, तब तो बौद्धोंकों तीसरा या चौथा न्यारा प्रमाण मानना प्राप्त हो जाता है । किन्तु बौद्धोंने प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मान रक्खे हैं ।
न हि लिंगप्रत्यवगमोप्रमाणं ततो व्याप्तिव्यवहारकाल भाविलिंगसादृश्याव्यवस्थितिप्रसंगात् । तथा चानुपानोदया संभवस्तत्संभवेतिप्रसंगात् । अप्रमाणात्तद्व्यवस्थितौ प्रमाणानर्थक्यप्रसंग इत्युक्तं । ततो नानुमानं प्रत्यभिज्ञानं । किं तर्हि प्रमाणांतरं संवादकत्वात् प्रत्यक्षादिवत् । न हि दृश्यप्राप्ययोरेकत्वाध्यारोपेण प्रमाणांतरसंगमलक्षणः संवादः संज्ञायामसिद्धः, प्रत्यक्षादावपि तदसिद्धिप्रसंगात् ।
अनुमान करने के पूर्व में " यह वैसा ही हेतु है " ऐसा लिङ्गका प्रत्यभिज्ञान करना अप्रमाण तो नहीं है । अन्यथा उस प्रत्यभिज्ञानसे व्याप्तिग्रहण काल और पुनः संकेतस्मरण करते हुये पीछे व्यवहारकालमें हो रहे लिङ्गके सादृश्यकी व्यवस्था नहीं हो सकनेका प्रसंग होगा और तैसा होनेपर अनुमानकी उत्पत्ति होना असम्भव पड जायगा । फिर भी अप्रमाण प्रत्यभिज्ञानसे उस अनुमानकी उत्पत्ति मानोगे तो अतिप्रसंग हो जायगा, यानी जलवाष्प ( भाफ ) में हुये धुऐंके प्रत्यभिज्ञानसे जलद में अनिका समीचीन अनुमान हो जायगा । अप्रमाण ज्ञानसे जान लिये गये हेतुसे उस सपन की व्यवस्था होना मान लिया जायगा तो प्रमाण ज्ञानोंके व्यर्थपनेका प्रसंग होता है । यदि कुत्ता ही घास खोदले तो घसखोदा मनुष्यकी क्या आवश्यकता है ? इसको हम पहिले भी कह चुके हैं । तिस कारण प्रत्यभिज्ञान अनुमान प्रमाणस्वरूप नहीं है । किन्तु अनुमानसे न्यारा स्वतंत्र प्रमाण है । क्योंकि वह अपने द्वारा ज्ञात कर लिये गये विषय में सफलप्रवृत्ति करा देनेवाला है । जैसे कि प्रत्यक्ष आदिक स्वतंत्र प्रमाण हैं । बौद्धोंने दर्शन करने योग्य आलम्बन और पीछे प्राप्त करने ( पकडने ) योग्य स्वलक्षणमें एकपनका अध्यारोप करके अन्य प्रमाणोंकी संगति होना स्वरूप सम्वाद जैसा प्रत्यक्ष प्रमाणमें माना है, वैसा सम्बाद इस प्रत्यभिज्ञान में भी असिद्ध नहीं
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