Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्य लोकपातिक
असम्भव होनेपर ज्ञानमात्र हो जाना इस अपनी निजकी अर्थक्रियाकी मी भला कैसे व्यवस्था हो सकेगी ! जिससे कि उस सर्वथा क्षणिकसे निवृत्तिको प्राप्त हो रहा सन्ता सत्त्व हेतु अनेकान्तस्वरूप कचित् क्षणिकपदार्थमें स्थितिको प्राप्त करके उस क्षणिकपनसे विरुद्ध नहीं होता। भावार्थ-सम्पूर्ण पदार्थोकी सबसे पहिली सुलभ अर्थक्रिया संसारी जीवों या सर्वज्ञके ज्ञान द्वारा अपनी ज्ञप्ति करा देना है, जब कि सर्वथा क्षणिक पदार्थ क्रम और अक्रम धर्मोसे युक्त नहीं है, तो अपना ज्ञान करानारूप अर्थक्रियाको वह असत् भला कहांसे करायगा ! व्यापकके न रहनेपर व्याप्य भी नहीं रहता है। अतः कथंचित् क्षणिकपनके साथ व्याप्ति रखनेवाला सत्व हेतु सर्वथा क्षणिकत्वको साधनेमें विरुद्ध पड गया। इस प्रकार बौद्धोंके यहां माना गया क्षणिकपन सिद्ध नहीं हुआ और भी इस प्रकारकी शंकाओंके उत्तर हम पहिले प्रकरणोंमें बाहुल्यसे कह चुके हैं। यहां प्रकरण बढाना अभीष्ट नहीं है।
तथा च किं कुर्यादित्याहा
और तिस प्रकार जैनोंके अनुसार सिद्ध हुआ वह हेतु प्रकरणमें क्या करेगा ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज स्पष्ट व्याख्यान करते हैं।
निहंति सर्वथैकांतं साधयेत्परिणामिनं ।
भवेत्तत्र न भावे तत्सत्यभिज्ञा कथंचन ॥ ७१॥
तिस कारण सत्त्व हेतुसे कयंचित् क्षणिकपन और न्यारे न्यारे पदार्थोंमें कथंचित् सदशपना सिद्ध हो जानेसे निर्बाध हो मई सदृशपन और एकपनको विषय करनेवाली प्रत्यभिका नामकी प्रतीति (कत्री ) पदार्थोके सर्वथा नित्यपन अथवा क्षणिकपनके एकान्तको नष्ट कर देती है । और पदार्थोके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूपपरिणामका साधन करा देती है । ऐसे अनेकान्तरूप और परिणामी उस पदार्थमें भला वह प्रत्यभिज्ञान कैसे नहीं होगा ! अर्थात् अवश्य होगा। परिणाम नहीं होनेवाले कूटस्थ
और निरंश एकान्त क्षणिक पदार्थोकी सिद्धि नहीं हो सकी है। कथंचित् निस्य, परिणामी, अनेक धर्मात्मक, वस्तुभूत अर्थमें प्रत्यभिज्ञान प्रमाणका विषयपमा है।
दव्यपर्यायात्मनि नित्यात्मके वस्तुनि जात्यंतरपरिणामिन्येव द्रव्यतःप्रत्यभिज्ञा सस परिणामतो वा संभवति सर्वया विरोधाभावान्न पुनर्नित्यायेकाते विरोषसिद्धेः। तथाहि
द्रव्य और पर्यायोंमें तदात्मक हो रहे कथंचित् नित्य अनित्यस्वरूप तथा पूर्वस्वभावका त्याग, उत्तरस्वभावका ग्रहण, स्थूल पर्यायोंकी ध्रुवतास्वरूप, ऐसी विलक्षण जातिकी वस्तुमें ही इम्य करके अथवा सदृश परिणाम होनेसे प्रत्यभिज्ञान सम्भवता है। सभी प्रकारोंसे विरोध नहीं है। हां, फिर नित्यपन, क्षणिकपन, अकेले द्रव्यपन, अकेले पर्यायपन, आदिका एकान्त स्वीकार करनेपर तो प्रत्यभिज्ञान नहीं होता है। क्योंकि विरोध होना सिद्ध है। आचार्य महाराज इसी अर्थको विशद कर कहते हैं।