Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२२८
तत्वार्यलोकवार्तिके
है । अन्यथा प्रत्यक्ष और अनुमानमें भी उस सम्बादकी असिद्धिका प्रसंग होगा। भावार्थ-प्रत्यक्षमें आलम्बन और प्राप्य तथा पुनः दूसरे प्रत्यक्षका आलम्बन और प्राप्य एवं उसी विषयमें तीसरे प्रत्यक्षके प्रवृत्त होनेपर पुनः उन्हीं आलम्बन और प्राप्योंका मिल जाना, ये सम्पूर्ण व्यवस्थायें एकत्वके आरोपण करनेसे ही बन सकती हैं । पूर्वक्षणवर्ती विषयको ज्ञानका कारण माननेवाले क्षणिकवादियोंके पास अध्यारोपके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है। उसी प्रकार प्रत्यभिज्ञानके अवसरपर भी एकत्वका आरोप कर उसी विषयमें अन्य प्रमाणोंका संगम होनारूप संवाद बन जाता है। कोई अनुपपत्ति नहीं है।
एतेनार्थक्रियास्थितिरविसंवादस्तदभावान प्रत्यभिज्ञाप्रमाणमित्यपि प्रत्युक्तं। तत एव प्रत्यक्षादेरप्रमाणत्वप्रसंगात् ।
इस उक्त कथन करके अर्थक्रिया में स्थिति करा देना रूप अविसम्वाद है, उसके न होनेसे प्रत्यभिज्ञा प्रमाण नहीं है, यह कथन भी खण्डित कर दिया गया समझ लेना चाहिये । क्योंकि यों तो तिस ही कारण प्रत्यक्ष आदिकोंके अप्रमाणपनका प्रसंग होगा अर्थात् देर तक अर्थक्रिया करनेमें ठहराये रखना तो प्रत्यक्ष आदिसे भी नहीं हो पाता है। अतः वे भी प्रमाण नहीं बन सकेंगे।
प्रतिपत्तुः परितोषात्संवादस्तत्र प्रमाणतां व्यवस्थापयतीति चेत्, प्रत्यभिज्ञानेपि । न हि ततः प्रवृत्तस्यार्थक्रियास्थितौ परितोषो नास्तीति । यदि पुनः बाधकामावः संवादस्तदभावान प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमिति मतं तदान सिद्धो हेतुः अयम् संवादाभावादिति । तथाहि___अर्थको समझनेवाले प्रतिपत्ताका संतोष हो जानेसे उन प्रत्यक्ष आदिकोंमें सम्बाद हो जाता है, जो कि प्रत्यक्ष आदिकोंकी व्यवस्था करा देता है। इस प्रकार कहनेपर तो प्रत्यभिज्ञानमें भी वही लगालो । उस प्रत्यभिज्ञानसे अर्थको जानकर परिचित पुत्र, प्रासाद, आभूषण, आदि पदार्थोंमें प्रवर्त रहे पुरुषको अर्थोकी क्रियाके स्थित रहनेमें परितोष नहीं होता है, यह नहीं समझना । किन्तु किन्हीं किन्हीं लौकिक जनोंको तो प्रत्यक्षसे जाने हुये पदार्थोकी अर्थक्रियाकी अपेक्षा प्रत्यभिज्ञानसे जाने हुये अर्थकी अर्थक्रियास्थितिमें अधिक परितोष मिलता है । यदि फिर बौद्धोंका यह मन्तव्य होय कि उस प्रमाणके विषयमें बाधक प्रमाणोंका उत्पन्न नहीं होना ही सम्वाद है । उस सम्वादके न होनेसे ( हेतु ), प्रत्यभिज्ञा (पक्ष ) प्रमाण नहीं है ( साध्य )। ऐसा माननेपर तो हम जैन कहेंगे कि यह बौद्धोंका सम्वादाभावरूप हेतु सिद्ध नहीं है । स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । क्योंकि प्रत्यभिज्ञानके विषयका कोई बाधक नहीं है । अतः बाधकामावरूप सम्वादका अभाव हेतु प्रत्यभिज्ञा. रूपपक्षमें नहीं ठहर पाया। इस बातका और भी स्पष्टकर आचार्य व्याख्यान कर देते है।