Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
व्यापकानुपलब्धिनित्यस्यासत्त्वं सर्वथाऽसादृश्यं च साधयंती नित्यत्वसादृश्यविषयस्य प्रत्यभिज्ञानस्य बाधिकास्तीति केचित् । तदेतदपि दुर्घटम् । कुतः
पूर्वपक्ष है कि यह वस्तुभूत पदार्थोका सत्त्व तो अर्थनियासे व्याप्त है । तथा अर्थक्रिया क्रमसे और अक्रमसे होकरके व्याप्त हो रही है । ऐसी दशामें जब कि वे क्रम और अक्रम विचारे सर्वथा नित्य पदार्थ और सदृशपदार्थोसे निवृत्त हो रहे हैं तो अपनेसे व्याप्य अर्थक्रियाको भी साथ लेकर ही निवृत्त करा देवेंगे और वह अर्थक्रिया जब नित्यपदार्यमें नहीं वर्त रही है तो अपने व्याप्य सत्वको भी उस कूटस्थसे निवृत्त कर लेवेगी, जैसे कि घोडेमे मनुषपना निवृत्त होता हुआ अपने व्याप्य ब्राह्मणपन और उस ब्राह्मणपनके भी व्याप्य गौडपन या सनाढ्यपनको भी निवृत्त करा देता है। इस प्रकार व्यापककी अनुपलब्धि हो रही कूटस्थ नित्यके असत्त्वका और सभी प्रकार असा-. दृश्यका साधन कराती हुई नित्यत्व और सादृश्यको विषय करनेवाले प्रत्यभिज्ञानकी बाधक बन बैठती है। अर्थात् कूटस्थ नित्यमें जब क्रम और अक्रम नहीं हैं तो अर्थक्रिया भी न रही और व्यापक अर्थक्रियाके नहीं रहने से उसका व्याप्य सत्त्व नहीं रहा । अतः वह्निकी अनुपलब्धिसे जैसे धूमका -अभाव सिद्ध हो जाता है । उसी प्रकार क्रमयोगपद्य या अर्थक्रियाकी अनुपलब्धिसे नित्य या सदृश अर्थमें सत्ताका अभाव सिद्ध हो जाता है। जब प्रत्यभिज्ञानके विषय एकपना (नित्यत्व ) और सादृश्य ही नहीं सिद्ध हो सकेंगे तो अनुपलब्धि प्रमाणसे प्रत्यभिज्ञा बाधित हो गई, इस प्रकार कोई बौद्ध कह रहे हैं प्रन्थकार कहते हैं कि सो यह भी उनका कहना युक्तियोंसे घटित नहीं होता है। उनके यहां दुर्घटना मच जायगी। कैसे दुर्घट है ? सो सुनिये । • क्षणप्रध्वंसिनः संतः सर्वथैव विलक्षणाः। - इति व्यातेरसिद्धत्वाद्विप्रकृष्टार्थशंकिनाम् ॥ ६७॥
सम्पूर्ण सत्पदार्य क्षणमें समूलचूल नाश हो जाना स्वभाववाले हैं। यानी एक क्षणमें ही उत्पन्न होकर आत्मलाम करते हुये द्वितीय क्षणमें विनाकारण ही ध्वंसको प्राप्त हो जाते हैं। तथा प्रतिक्षण नवीन नवीन उत्पन्न हो रहे पदार्थ सर्व ही प्रकारोंसे परस्परमें विलक्षण हैं। कोई किसीके सदृश नहीं है । सूर्य, चन्द्रमा, आत्मा, सर्वज्ञप्रत्यक्ष, परमात्मा, आदि पदार्थोके भी उत्तर उत्तर होनेवाले असंख्य परिणाम सदृश नहीं हैं, विभिन्न है, इस प्रकार बौद्धोंने अपने घरका सिद्धान्त मान रक्खा है । अब आचार्य कहते हैं कि जो बौद्ध देशसे व्यवधानको प्राप्त हो रहे और काल या खभावोंसे विप्रकृष्ट हो रहे पदार्थोके सद्भावमें आशंका करते रहते हैं, उनकी सत्ताका दृढ निश्चय नहीं करते हैं, उनके यहां " जो जो सत् हैं, वे क्षणिक हैं " अथवा " जो जो सत् पदार्थ हैं वे सर्वथा ही विसदृश हैं " ऐसी व्याप्ति सिद्ध नहीं हो पाती है। क्योंकि व्याप्तिका ग्रहण सम्पूर्ण देशकास्वत्ती साध्य साधनोंके उपसंहार करके किया जाता है । अतः बौद्ध अनुमान द्वारा क्षणिक