Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्वचिन्तामणिः
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जाती है, और किन्हीं पदार्थोकी सिद्धि अप्रमाण ज्ञानोंसे नहीं हो पाती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार अर्धजरतीयन्याय तो श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि सभी स्थलोंपर उस अर्थकी स्वपरपरिच्छित्ति खरूप सिद्धि करानेवाले पदार्थमें कोई विशेषता नहीं है । भावार्थ-आधे अर्थोकी प्रमाणसे सिद्धि होना मानना और शेष आधे अर्थोकी अप्रमाणसे सिद्धि मानना उचित नहीं है, जैसे कि आधी बुट्ठी स्त्रीका अपनेको युवती समझना अनीति है। सूर्यके प्रकाश यां मेघ वर्षणके सामान्य न्याय सर्वत्र एकसा होता. है । अर्थकी समीचीनज्ञप्ति प्रमाणोंसे ही होती है । इसमें अकाण्डताण्डव कर मठा बढाना व्यर्थ है।
स्मृतिस्तदिति विज्ञानमर्थातीते भवत्कथम् । स्यादर्थवदिति खेष्टं याति बौद्धस्य लक्ष्यते ।। २५॥ प्रत्यक्षमर्थवन्न स्यादतीतेथे समुद्भवत् । तस्य स्मृतिवदेवं हि तद्वदेव च लैंगिकम् ॥ २६ ॥
सौगत कहता है कि " सो वह था " इस प्रकार विज्ञान करना स्मरण है। वह स्मरण अर्थक अतिक्रान्त हो जानेपर उत्पन्न होता हुआ भला अर्थवान् कैसे होगा ! अर्थात् विषयभूत अर्थके भूतकालके पेटमें व्यतीत हो जानेपर स्मरण होता है । उसका ज्ञेय अर्थ वर्तमानमें नहीं रहा । फिर स्मरणज्ञानको जैन अर्थवान् कैसे मान सकते हैं। आचार्य बोलते हैं कि इस प्रकार कहनेपर तो बौद्धका अपना गांठका अभीष्ट सिद्धान्त भी चला जाता है, ऐसा ध्वनित होता है। देखिये, बौद्धोंने प्रत्यक्षज्ञानका कारण स्वलक्षण अर्थको माना है । कार्यसे एक क्षण पूर्वमें समर्थ कारण रहा करता है । क्षणिकवादी बौद्धोंके यहां कार्य और कारणका एक ही क्षणमें ठहरना तो नहीं बनता है । प्रत्यक्षज्ञानके उत्पन्न होनेपर उसका कारण खलक्षण अर्थ नष्ट हो चुका है । अतः अर्थके अतीत हो जानेपर उस बौद्धके यहां इस प्रकार मले ढंगसे उत्पन्न हो रहा प्रत्यक्षप्रमाण मी स्मृतिके समान अर्थवान् न हो सकेगा। अनेक वर्ष पहिले मरे हुये पुरुषके समान एक क्षण प्रथम मरा हुआ मनुष्य मी धन उपार्जन नहीं कर सकता है । तथा उस प्रत्यक्षके ही समान अनुमानज्ञान भी अतीत अर्थके होनेपर उत्पन्न हुआ सन्ता अर्थवान् नहीं हो सकेगा। निर्विषयज्ञान तो प्रमाण नहीं है। -..-... . .
नार्थाज्जन्मोपपद्येत प्रत्यक्षस्य स्मृतेरिव । तद्वत्स एव तद्भावादन्यथा न क्षणक्षयः ॥२७॥
स्मृतिका जैसे अर्थसे जन्म होना युक्तिपूर्ण नहीं है, उसीके समान प्रत्यक्षकी उत्पत्ति भी अर्थसे मानना अनुचित है। स्मृति जैसे विना भी अर्थके हो जाती है, वैसे ही वह प्रत्यक्ष भी