Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
२१८
तत्वार्थ लोकवार्तिके
1
साध रहा है । जो कि ज्ञान उन स्मरण और प्रत्यक्ष दोनों ज्ञानोंसे न्यारा माना गया है । तथा उसका विषय एकत्व भी उन दोनों पर्यायोंसे निराला है । अतः अपूर्व अर्थका ग्राहक होनेसे प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है ।
न हि सांप्रतिकातीतपर्याययोर्दर्शनस्मरणे एव तत्प्रत्यभिज्ञानं यतो दोषावकाशः स्यात् । किं तर्हि ? तद्वयापिन्येकत्र द्रव्ये संकलनज्ञानं ।
वर्त्तमानकी पर्यायको जाननेवाला दर्शन और भूत पर्यायको जाननेवाला स्मरण ही वह प्रत्यभिज्ञान नहीं है, जिससे कि प्रत्यभिज्ञानके अप्रमाणपन, व्यर्थपन, गृहीतग्राहीपन, आदि दोषोंको स्थान मिल सके । तो प्रत्यभिज्ञान क्या है ? इसका उत्तर यही है कि उन भूत और भविष्यकी दोनों पर्यायों में व्यापनेवाले एकद्रव्यमें यानी द्रव्यको विषय करनेके लिये एक जोडरूप ज्ञान करना प्रत्यभिज्ञान है |
नन्वेवं तदनादिपर्यायव्यापि द्रव्यविषयं प्रसज्येत नियामकाभावादिति चेन्न, नियामकस्य सद्भावात् ।
प्रत्यभिज्ञान के विषय में कोई वादी शंका करता है कि जब अतीत और वर्तमान पर्यायोंमें व्यापक हो रहे एक द्रव्यको प्रत्यभिज्ञान जानता है, तब तो अनादिकालकी भूत पर्यायोंमें व्यापनेवाले द्रव्यको विषय कर लेनेका प्रसंग होगा। क्योंकि आप जैनोंके पास कोई नियम करने वाला कारण नहीं है कि दश पांच वर्ष पूर्व हीकी पर्यायों और वर्तमान पर्यायमें रहनेवाले एकपनसे आक्रान्त द्रव्यको तो प्रत्यभिज्ञान जाने, किन्तु असंख्य वर्ष या अनन्त वर्ष पहिले व्यतीत हो चुकी पर्यायोंमें वर्त रहे द्रव्यको नहीं जान पावे । हेतुके बिना कोई विशेष नियम नहीं होता है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये । क्योंकि नियम करानेवाले हेतुका हम जैनोंके यहां सद्भाव है । सो सुनिये ।
1
क्षयोपशमतस्तच्च नियतं स्यात्कुतश्चन ।
अनादिपर्ययव्यापि द्रव्यसंवित्तितोस्ति नः ॥ ४४ ॥
1
वह नियत हो रहे पूर्वपर्यायोंमें वर्त्त रहे द्रव्यको विषय करनेका नियम तो क्षयोपशमसे हो जाता है । और वह क्षयोपशम किसी भी कषायोंकी विलक्षण मन्दता या कालाणुओंके निमित्तसे तारतम्यको लिये हुये उत्पन्न हुई क्षयोपशमकी जाति आदि नियामकोंसे नियमित हो रहा है । हमारे यहां प्रत्यभिज्ञान द्वारा अनादिकालकी पर्यायोंमें व्याप रहे द्रव्यकी संवित्ति होना भी माना है । इस कारण पूर्वोक्त दोषका प्रसंग नहीं है। श्रुतज्ञानका विषय बडा लम्बा चौडा है । अथवा "नानादि" पाठको शुद्ध मानने पर हम कहते हैं कि वह प्रत्यभिज्ञान भूतकालकी अनादि पर्यायोंमें व्याप रहे द्रव्यकी संवित्ति नहीं करा पाता है ।