Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
“ तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितं । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् " इस प्रमाण लक्षण में मीमांसकोंने जो बाधवर्जितपना प्रमाण के लक्षण में डाला है, सो यह बाधवर्जितपना भी और अर्थ निश्चयसे कोई भिन्न नहीं है । जब स्व और अर्थका निश्चय हो गया है, तो वह फिर किसी भी प्रमाणसे बाधा नहीं जासकता है । वह स्वार्थ निश्चय हो जाय और किसीके द्वारा वह प्रकृष्ट रूप से बाधा जाय इसमें तो व्याघात दोष है । जो बाधित है, वह स्वार्थ निश्चय नहीं है । और जो स्वार्थनिश्चय आत्मक ज्ञान है, वह बाधित नहीं है । अतः स्वार्थ निश्चय में भी व्यभिचारनिवारणार्थ बाधारहितपना लगाना भोले जीवोंका व्यर्थ भाषण है । यदि कोई यों कहे कि बाधक प्रमाणके उदयसे पहिले स्व और अर्थका निश्चय है, हां, पीछे उस बाधकका उदय होने पर तो स्वार्थनिश्चय बाधित हो जाता है, प्रन्थकार कहते हैं कि यह कहना भी विना विचार किये हुये है । क्योंकि यों तो अप्रमाणज्ञानसे भी प्रवृत्ति होने का प्रसंग होगा। क्योंकि प्रवृत्ति हो चुकनेपर बाधकके उदय होनेसे पहिला ज्ञान बाध्य होगा । तिस कारण बाधकके उत्पन्न होनेसे पहिले प्रमाण व्यर्थ पडा ।
बाधकाभावविज्ञानात्प्रमाणत्वस्य निश्चये । प्रवृत्त्यंगे तदेव स्यात्प्रतिपत्तुः प्रवर्तकम् ॥ ८३ ॥ तस्यापि च प्रमाणत्वं बाधकाभाववेदनात् । परस्मादित्यवस्थानं क नामैवं लभेमहि ॥ ८४ ॥
यदि मीमांसक यों कहें कि पीछे हुये बाधकाभाव के विज्ञानसे प्रमाणपनका निश्चय कर चुकने को प्रवृत्तिका अंग माना जायगा, तब तो हम स्याद्वादी कहते हैं कि वह बाधकाभावका ज्ञान ही प्रतिपत्ताको प्रवर्तक हो जावे । दूसरी बात यह है कि उस बाधकाभाव के विज्ञानको प्रमाणपना दूसरे बाधकाभाव ज्ञानसे निश्चित होगा और दूसरेका प्रमाणपना तीसरे बाधकाभाव ज्ञानसे ज्ञात होगा, इस प्रकार भला हम कहां अवस्थितिको प्राप्त कर सकेंगे । अनवस्था दोष हो जायगा ।
बाधकाभावबोधस्य स्वार्यनिर्णीतिरेव चेत् ।
बाधकांतरशून्यत्वनिर्णीतिः प्रथमेत्र सा ॥ ८५ ॥
यदि मीमांसक यों कहें कि दूसरे बाधकाभाव ज्ञानका स्वार्थनिर्णय करना ही अन्य बाधकोंकी शून्यताका निर्णय करना है । अतः तीसरे चौथे आदि बाधकाभावों के ज्ञानोंकी आकांक्षा नहीं बढ़ेगी, अनवस्था दोष नहीं लागू होगा, इसपर तो हमारा कहना है कि तो इस पहिले ज्ञानमें भी स्वतंत्र बाकाभाव ज्ञान क्यों माना जाता है । प्रथमज्ञान द्वारा स्व और अर्थका निर्णय करना ही बाधकाभाका निर्णय करना है । अतः प्रमाणके लक्षण में बाधकाभाव विशेषणका पुंछल्ला लगाना व्यर्थ है ।