Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
१८१
ओंका स्वरूप अस्पष्ट है । सर्वाङ्ग स्पष्ट हो रहे अविचारक प्रत्यक्षज्ञानमें लेश मात्र भी विचार कल्पना नहीं है ।
दूरात्पादपादिदर्शने कल्पनारहितेप्यस्पष्टत्वप्रतीतेरतिव्यापीदं लक्षणमिति चेन्न, तस्य विकल्पास्पष्टत्वेनैकत्वारोपादस्पष्ट तोपलब्धेः । स्वयम स्पष्टत्वे निर्विकल्पत्वविरोधात् । ततो निरवद्यमिदं कल्पनालक्षणं ।
कोई शंका करे कि दूर देशसे वृक्ष, गृह, मनुष्य, आदिके दर्शन करनेपर कल्पनारहित समीचीन ज्ञानमें भी अस्पष्टपना दीख रहा है । इस कारण कल्पनाका यह लक्षण अतिव्याप्त है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं विचारना । क्योंकि उस दूरसे हुये प्रत्यक्षको झूठे विकल्पज्ञान की घरू अस्पष्टता के साथ एक पनेका आरोप हो जानेसे अविशदपना प्रतीत हो रहा हैं । जैसे कि जपा पुष्पके साथ एकत्व आरोप होनेसे स्वच्छ स्फटिक भी लाल दीख जाता है । यदि वह दूरसे देखे हुये वृक्षका ज्ञान स्वयं अस्पष्ट होता तो निर्विकल्पकपनेका विरोध हो जाता । बौद्धोंके यहां अविशदज्ञान निर्विकल्पक नहीं माना गया है । तिस कारण यह अस्पष्टपना कल्पनाका लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, और असंभव दोषोंसे रहित है ।
एतेन निश्चयः कल्पनेत्यपि निरवद्यं विचारितं, लक्षणान्तरेणाप्येवंविधायाः प्रतीतेः कल्पनात्वविधानाद्गत्यंतराभावात् ।
इस उक्त कथन करके कल्पनाका स्वार्थनिश्चय करना यह लक्षण भी निर्दोष है, यह विचार कर दिया गया है । अन्य लक्षणों के कहने से भी इस प्रकार की प्रतीतिको कल्पनापने का विधान हो जाता है । बौद्धों के पास इनके अतिरिक्त कल्पनाके लक्षण करनेका अन्य कोई उपाय शेष नहीं है । अर्थात् ज्ञानका स्मरणके पीछे होनापन, शब्दके आकार से अनुविद्धपना, जाति आदिका उल्लेख करना, असत् अर्थको विषय करना, अन्यकी अपेक्षासे अर्थका निर्णय करना, लौकिक कोरा व्यवहार करना, ये सब कल्पनाके लक्षण निर्दोष नहीं है । अद्वैतवादियोंकी गढी हुई कल्पनाके समान बौद्धों की कल्पना भी ठीक नहीं बैठती है । और जो ठीक है, उस कल्पनासे युक्त प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । “ किमाश्चर्यमतः परम् " 1
तत्राद्यकल्पनापोढे प्रत्यक्ष सिद्धसाधनम् ।
स्पष्टे तस्मिन्नवैशद्यव्यवच्छेदस्य साधनात् ॥ १० ॥ अस्पष्टप्रतिभासायाः प्रतीतेरनपोहने । प्रत्यक्षस्यानुमानादेर्भेदः केनावबुध्यते ॥ ११ ॥