Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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स्वार्थ लोकवार्तिके
यसे भिन्न कोई न्यारे पदार्थ नहीं हैं। फिर भी कोई रूक्ष सामर्थ्य द्वारा उनको निश्चयसे न्यारा सिद्ध करेगा तो उठाये हुये विचारोंको नहीं सह सकनेके कारण वह अभ्यास आदिको निर्णयरूप ही कहने लग जायगा । भावार्थ - विलक्षण प्रकारका धारण ज्ञान ही संस्कार, अभ्यास, बुद्धिचातुर्य, निश्चय, स्मृतिहेतु, आदि नामोंको धारणा करता है ।
तदकल्पकमर्थस्य सामर्थ्येन समुद्भवात् । अक्षवत्येके (न) विरुद्धस्यैव साधनम् ॥ १६ ॥ जात्याद्यात्मकभावस्य सामर्थ्येन समुद्भवात् । सविकल्पकमेव स्यात् प्रत्यक्षं स्फुटमंजसा ॥ १७ ॥
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द्ध कहते हैं कि as प्रत्यक्षज्ञान कल्पनासे रहित है । क्योंकि जब विषयभूत अर्थका स्वरूप कल्पनाओंसे रहित निर्विकल्पक है, और उस अर्थकी सामर्थ्य से प्रत्यक्षज्ञान भले प्रकार उत्पन्न हो रहा है, तो अर्थजन्य हुई उसी अर्थ की उत्तर क्षणकी पर्यायके समान अर्थजन्य प्रत्यक्षज्ञान भी निर्विकल्पक है । कारणों के सदृश कार्य होता है । इस प्रकार कोई अन्य बौद्ध कह रहे हैं। आचार्य कहते हैं कि उनका कहना युक्त नहीं है । यों तो विरुद्धका ही साधन होता है । अर्थात् — निर्विकरूपक अर्थके निमित्तसे उत्पन्न होना हेतुविरुद्ध है । आत्मामें जड पदार्थोंके निमित्तसे सुख, दुःख, ज्ञान, इच्छायें, चैतन्यरूप उपज जाती हैं । दूसरी बात यह है कि घट, पट, आदिक पदार्थ निर्विकल्प नहीं हैं । जैसे कि तुम बौद्धोंने मान रखे हैं । किन्तु जाति, विशेष, संसर्ग, दीर्घ, लघु, आदि वास्तविक कल्पनाओंसे तदात्मक हो रहे हैं । उस सविकल्पक अर्थकी सामर्थ्य से समुत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्षज्ञान सविकल्पक ही होगा, जो कि निर्दोष होकर स्पष्ट है । अतः प्रत्यक्षमें निर्विकल्पकपना साधने के लिये दिया गया बौद्धोंका निर्विकल्पक अर्थकी सामर्थ्य से उपजना यह हेतु विरुद्ध है । उससे तो तुम्हारे साध्यके विरुद्ध सविकल्पकपनेकी प्रत्यक्षमें सिद्धि हो जाती है ।
परमार्थेन विशदं सविकल्पकं प्रत्यक्षं न पुनरविकल्पकं वैशद्यारोपात् ।
परमार्थरूपसे देखा जाय तो प्रत्यक्षज्ञान विशद होता हुआ सविकल्पक है । फिर निर्विकल्पक नहीं है । क्योंकि विशदपनेका वस्तुभूत आरोप हो रहा है, अर्थात् जो विशद होगा वह विशेषों सहित रूप से प्रतिभास करता हुआ सविकल्पक होगा । अथवा निर्विकल्पकके वैशद्यका आरोप हो जाने से सविकल्पक विशद नहीं होगया है ।
ननु कथं तज्जात्याद्यात्मकादर्थादुपजायेताविकल्पान्न हि वस्तु सत्सु जातिद्रव्यगुणकर्मसु शब्दाः संति तदात्मानो वा येन तेषु प्रतिभासमानेषु प्रतिभासेरन् । न च तत्र शब्दाऽमतीतौ कल्पना युक्ता तस्याः शब्दात्प्रतीतिलक्षणत्वादशब्दकल्पनानामसंभवात् । ततो न विरुद्धो हेतुरिति चेत् । अत्रोच्यते ।