Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्धोंका स्वमत स्थापन के लिये अवधारण है कि वह प्रत्यक्ष मला जाति, द्रव्य, संबंध आदि स्वरूप अर्थसे कैसे उत्पन्न होगा ? क्योंकि अर्थ तो जाति, शब्दयोजना आदि कल्पनाओंसे रहित है । गौ, अश्व, मनुष्य, आदि जातियोंके वाचक गौ आदिक शब्द जातिशब्द हैं । घट, . पट, आत्मा आदिक द्रव्यशब्द हैं। काला, नीला, रस, शीत आदि गुणशब्द हैं । चलना, दौडना - उठाना, आदि क्रियाशब्द हैं । यहां विचार है कि तत्त्वका स्वरूप निर्विकल्प है । वस्तुभूत हो रहे अवाध्य जाति, द्रव्य, गुण और कर्म इन अर्थोंमें शब्द नहीं प्रवर्त होते हैं तथा वे शब्द उन जाति आदि आत्मक भी नहीं है । जिससे कि उन जाति आदिकोंके प्रतिभासित होते संते उनके वाचक शब्द भी प्रतिभास जाते और जबतक उन अर्थोंमें शब्दकी प्रतीति न होगी तबतक अर्थोंमें जाति आदिकी कल्पना करना उचित नहीं है । क्योंकि उस कल्पनाका लक्षण शद्वसे प्रतीति होना माना गया है । शङ्खोंकी योजना से रहित हो रही कल्पनाओंका असम्भव है । तिस कारण हमारा हेतु विरुद्ध नहीं है । भावार्थ - कल्पनाओंसे रहित अर्थ है, उससे उत्पन्न हुआ प्रत्यक्षज्ञान भी निर्विकल्पक है । कारण के अनुरूप कार्य होता है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर यहां श्रीविद्यानंद आचार्य समाधान कहते हैं ।
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यथावभासतो कल्पात् प्रत्यक्षात्प्रभवन्नपि ।
तत्पृष्ठतो विकल्पः स्यात् तथार्थाक्षाच स स्फुटः ॥ १८ ॥
जिस प्रकार उन बौद्धोंके यहां निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे उत्पन्न होता हुआ भी उसके पीछे सविकल्पक ज्ञान हो जाता है, तिस ही प्रकार निर्विकल्पक अर्थ और इन्द्रियों से वह स्पष्ट सविकल्पक प्रत्यक्ष हो सकता है । भावार्थ - निर्विकल्पक अर्थसे निर्विकल्पक प्रत्यक्षका ही होसकना बौद्धोंने इष्ट 1 किया है । किन्तु निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे उसके पीछे सविकल्पक प्रत्यक्ष उत्पन्न हुआ मान लिया है । अतः निर्विकल्पक अर्थसे एकदम सीधा सविकल्पकज्ञान उत्पन्न हो जानेमें निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे सविकल्पक ज्ञानकी उत्पत्ति होना हम जैनोंको बौद्धोंका दृष्टान्त मिल गया ।
दर्शनादविकल्पाद्विकल्पः प्रजायते न पुनरर्थादिति कुतो विशेषः । न चाभिलापवत्येव प्रतीतिः कल्पना जात्यादिमत्प्रतीतेरपि तथात्वाविरोधात् । संति चार्थेषु जात्यादयोपि तेषु प्रतिभासमानेषु प्रतिभासेरन् । ततो जात्यात्मकार्थदर्शनं सविकल्पं प्रत्यक्षसिद्धमिति विरुद्धमेव साधनम् ।
बौद्धों के यहां निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे विकल्पज्ञान भले ढंगसे उत्पन्न हो जाता मान लिया गया है । किन्तु फिर निर्विकल्पक अर्थसे सविकल्पकज्ञान उत्पन्न न होवे, इस प्रकार के पक्षपातग्रस्त नियम करने में किस हेतु विशेषता समझी जाय ? शद्वयोजनावाली प्रतीति ही कल्पना नहीं है । किन्तु जाति, गुण, आदिसे युक्त हो रही प्रतीतिको भी तिस प्रकार सद्भूत कल्पनापने का कोई विरोध न