Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तिन प्रमाणोंके प्रकरणमें स्मृतिको गृहीतका ग्रहण करनेवाली होनेसे यदि प्रमाणपमा नहीं मानोगे तो इस प्रकार धारावाहि इन्द्रियज्ञानको वह प्रमाणपना किस करके प्राप्त हो सकेगा ? बताओ। इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि विशिष्ट उपयोगके न होनेपर धारावाहिकज्ञानको वह प्रमाणपना मी नहीं माना गया है, ऐसा कहनेपर तो हम कहते हैं कि हम स्याद्वादियोंके यहां भी स्वार्थकी विशिष्ट नवीन ज्ञप्ति हो जानेपर स्मरणमें भी आप इन्द्रियजन्य ज्ञानके समान प्रमाणपना ठहर जाओ।
स्मृत्या स्वार्थ परिच्छिद्य प्रवृत्तौ न च बाध्यते।
येन प्रेक्षावतां तस्याः प्रवृत्तिर्विनिवार्यते ॥ १७ ॥
स्मरण ज्ञानके द्वारा स्व और अर्थकी झप्तिकर प्रवृत्ति होनेमें कोई भी जीव बाधाको प्राप्त नहीं होता है, जिससे कि उस स्मृतिसे विचारशाली जीवोंकी घट, पट, आदिमें प्रवृत्ति चलाकर निवारण करदी जाय ।
स्मृतिमूलाभिलाषादेर्व्यवहारः प्रवर्तकः । न प्रमाणं यथा तद्वदक्षधीमूलिका स्मृतिः ॥ १८ ॥ इत्याचक्षणिकोनुमानं मामस्त पृथक्प्रमा। प्रत्यक्षं तद्धि तन्मूलमिति चार्वाकतागतिः ॥ १९ ॥
स्मरणज्ञानको प्रमाण नहीं माननेवाले बौद्ध या वैशेषिक कहते हैं कि स्मृतिको कारण मान कर हुयीं अमिलाषा, पुरुषार्थ, क्रिया, आदिकसे उत्पन्न हुआ व्यवहार यद्यपि प्रवर्तक है तो भी प्रमाण नहीं हैं । क्योंकि ये जड हैं यह जैन भी मानते हैं । अथवा स्मृतिको मूल कारण रखते हुये भी प्रमाण नहीं हैं। उन्हींके समान इन्द्रियजन्य ज्ञानको मूलकारण स्वीकारकर उत्पन्न हुई स्मृति मी प्रमाण नहीं है। भले ही वह अर्थमें प्रवृत्ति करानेवाली हो, क्योंकि जिस ज्ञान या जड व्यवहारोंका मूलकारण ज्ञान पड़ चुका है, उस गृहीतग्राही ज्ञानको या ज्ञानजन्य व्यवहारोंको हम प्रमाण नहीं मानते हैं । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बडे आटोपके साथ बखान रहा वैशेषिक या बौद्धवादी अनुमानको भी पृथक्प्रमाण नहीं माने । क्योंकि उस अनुमानका भी मूल कारण वह प्रत्यक्ष प्रमाण ही है । हेतुको जाननेमें या पक्षको ग्रहण करनेमें प्रत्यक्षकी आवश्यकता है। दृष्टान्तमें व्याप्तिग्रहण किये गये हेतुके सारिखा ही यह दृश्यमान हेतु है। इस प्रत्यभिज्ञानकी भी अनुमानमें आवश्यकता है । व्याप्तिका स्मरण भी कारण है । प्रत्यक्ष तो प्रसिद्धरूपसे कारण हो ही रहा है। इस प्रकार इस नैयायिक या मीमांसक अथवा बौद्धको चार्वाकपना प्राप्त हो जाता है। क्योंकि चार्वाक ही उन ज्ञानोंको प्रमाण नहीं मानता है, जिनमें कि प्रत्यक्षज्ञान कारण हो जाता है। ऐसी दशामें स्मृति, संज्ञा, चिता आदिक मला प्रमाण कहां ठहर सकते ! किसी भी जान