Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
भी परिणाम वह इन्द्रियवृत्ति नहीं है। क्योंकि इन्द्रियवृत्ति तो कभी कभी कालमें होनेवाली है, और नित्य प्रकृति कभी कमी होनेवाली नहीं है । अथवा किसी सहकारीकी अपेक्षा नहीं रखती है। ऐसी उस प्रकृतिका कभी कमी होनेवाला प्रत्यक्षरूप परिणाम होना उचित नहीं है । यदि प्रकृति या आत्माको अन्य सहकारियोंकी अपेक्षा रखनेवाला माना जायगा तो उनमें कूटस्थपना भला कैसे बनसकेगा ? क्योंकि अपेक्षा किये जारहे पदार्थसे बनाये गये अतिशयका होना आवश्यक है । उपादान कारणमें या कार्यमें कुछ अतिशय धर देनेवालेको ही सहकारी कारण माना गया है। ऐसा होनेपर आत्माके अतिशयरहितपनेका विरोध होगा, कूटस्थपना तो रक्षित नहीं रह सकता है। अतः इन्द्रियवृत्ति प्रत्यक्षका लक्षण ठीक नहीं है।
पुंसः सत्संप्रयोगे यदिद्रियाणा प्रजायते । तदेव वेदनं युक्तं प्रत्यक्षमिति केचन ॥ ३७॥ तेऽसमर्था निराकर्तुं न प्रत्यक्षमतीन्द्रियं । प्रत्यक्षतोनुमानादेः सर्वज्ञत्वप्रसंगतः ॥ ३८॥
इन्द्रियोंका विद्यमान पदार्थके साथ समीचीन संसर्ग होनेपर जो आत्माके बढिया बुद्धिका जन्म होता है, वह ज्ञान ही प्रत्यक्षप्रमाण मानना युक्त है। इस प्रकार कोई मीमांसक विद्वान् कह रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि वे मीमांसक अतीन्द्रिय प्रत्यक्षको निराकरण करनेके लिये समर्थ नहीं हैं। क्योंकि प्रत्यक्षसे और अनुमान आदिक प्रमाणोंसे सर्वज्ञपनका प्रसंग प्रतीत है । भावार्थमीमांसकं पण्डित प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा युगपत् सर्वका साक्षात् करनेवाले सर्वज्ञको नहीं मानते हैं। हां, आगम, अनुमान, और व्याप्तिज्ञानसे सर्वका जानना ( परोक्ष ) अभीष्ट करते हैं । किन्तु सज्ञिका प्रत्यक्ष प्रमाण पहिले अनुमान द्वारा साधा जा चुका है । सूक्ष्म, अंतरित और दूरार्थ ( पक्ष ) किसी न किसीके प्रत्यक्ष विषय हैं ( साध्य ) क्योंकि हमको श्रुतज्ञानसे गम्य हैं ( हेतु ) जैसे नदी, देश, पर्वत, आदि (दृष्टान्त ) । अतः उनके माने गये प्रत्यक्षलक्षणमें अव्याप्ति दोष हुआ।
न ह्यसर्वज्ञः सर्वार्थसाक्षात्कारिज्ञानं नास्तीति कुतश्चित्प्रमाणानिधेतुं समर्थ इति प्रतिपादितमायं । न च तदभावानिश्चये करणजमेव प्रत्यक्षमिति नियमः सिद्धयेत् । ..
__सबको नहीं जाननेवाला अल्पज्ञानी प्राणी तो " सम्पूर्ण अर्थीका साक्षात् करनेवाला ज्ञान कोई नहीं है" इस बातको किसी भी प्रमाणसे निश्चय करनेके लिये समर्थ नहीं है। इसको हम कितने ही बार समझा चुके हैं। अतः परिशेषसे सर्वज्ञ ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है। जब कि उस सर्वज्ञ प्रत्यक्षके अभावका निश्चय नहीं है, तो इन्द्रियजन्यज्ञान ही प्रत्यक्ष है, ऐसा मीमांसकोंका नियम. करना नहीं सिद्ध हो पावेगा।