Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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वचार्यचिन्तामणिः
श्रोत्रादिवृचिरध्यक्षमित्यप्येतेन चिंतितं । तस्याविचार्यमाणाया विरोधश्च प्रमाणतः ॥ ३६॥
इस उक्त कथनसे इसका भी विचार कर दिया गया समझलेना चाहिये कि जो सांख्य पण्डित कान, आंख, आदि इन्द्रियोंकी उघाडना, खोलना, आदि वृत्तिको प्रत्यक्ष प्रमाण मान रहे हैं। क्योंकि यदि उस इन्द्रियवृत्तिका प्रमाणोंसे विचार किया जायगा तो विरोध दोष लगेगा। अथवा इन्द्रियवृत्तिकर विचार करनेपर सांख्योंको प्रमाणोंसे विरोध पडेगा।
___ इन्द्रियाण्यर्थमालोचयंति तदालोचितं मनः संकल्पयति तत्संकल्पितमहंकारोभिमन्यते तदभिमतं बुद्धिरध्यवस्यति तदध्यवसिवं पुरुषश्चेवयन इति श्रोत्रादिवृचिर्हि न सकृत्सर्वार्थविषया यतस्तत्सत्यक्षत्वे योगिप्रत्यक्षसंग्रहः स्यात् ।
सांख्य कहते हैं कि पहिले इन्द्रियें अर्थका सामान्यरूपसे आलोचन करती है कि रूप है, रस है, गन्ध है, आदि । उस आलोचना किये गये अर्थका पुनः मन संकल्प करता है कि वह पदार्थ ऐसा होगा, तैसा होगा, वहां मनोहर व्यञ्जन खानेको मिलेंगे आदि । पश्चात संकल्प किये गये उस अर्थका अहंकार तत्त्व अभिमान करता है कि मैं अर्थका गर्व करता हूं। मैं, मैं, हूं, हूं, आदि पीछे अभिमान किये गये अर्थका बुद्धि निर्णय कर लेती है । इतना सब प्रकृतिका कार्य है। अनन्तर उस बुद्धिसे निर्णीत किये गये अर्थको आत्मा चैतन्य कर लेता है, इस प्रकार इन्द्रिय, मन, संकल्प, आदिकी वृत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण है । इस प्रकार कापिलोंके कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि वह वृत्ति एक ही बार सम्पूर्ण अर्थोको विषय नहीं कर सकेगी, जिससे कि उन सब पदार्थोंका प्रत्यक्ष ज्ञान होते संते योगियोंके प्रत्यक्षका संग्रह हो जाता। भावार्य-इन्द्रियवृत्तिरूप प्रत्यक्षसे सर्वज्ञप्रत्यक्षका संग्रह नहीं हो सकता है।
न च प्रमाणतो विचार्यमाणा श्रोत्रादिवृत्तिः सांख्यानां युज्यते । सा हि न तावत्पुरुष परिणामोऽनभ्युपगमात्, नापि प्रधानस्यानंशस्यामूर्तस्य नित्यस्य सा कादाचित्कत्वात् । नाकादाचित्कस्यानपेक्षस्य कादाचिका परिणामो युक्तः सापेक्षस्य तु कुतः कौटस्थ्यं नामापेक्ष्यमाणार्थकृतातिशयस्यावश्यं भावानिरतिशयत्वविरोधात् कोटस्थ्यानुपपत्तेः।
___ दूसरी बात यह है कि प्रमाणोंसे विचार की गयी कान, आदि इन्द्रियोंकी वृत्ति तो सांख्योंके यहां नहीं युक्तिसहित वटित हो पाती है । देखिये, वह इन्द्रियवृत्ति सबसे पहिले पुरुषका परिणाम तो नहीं है। क्योंकि आप सांख्योंने यह स्वीकार नहीं किया है। आत्माके धर्म दृष्टापन, उदासीनपन, चैतन्य, भोक्तृत्व, साक्षित्व माने गये हैं । आत्माके परिणाम होना भी तो नहीं माना है । कापिलोंके यहां आत्माको कूटस्थ अपरिणामी स्वीकार किया है । तथा अंशरहित, अमूर्त, नित्य, ऐसी प्रकृतिका