Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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कारण कि लोकव्यवहार में की गयीं मूल्यवान्, छोटा, बडा, इष्ट, अनिष्ट, मेरा तेरा, दूर, निकट आदि अनेक कल्पनाओंसे रहित जो प्रत्यक्ष होगा वही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है । भले ही उस प्रत्यक्षमें स्वार्थनिर्णय या आकाररूप अर्थविकल्पना आदि ये शास्त्र संबंधी कल्पनायें रह जावें, कोई क्षति नहीं है । यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तब तो ग्रन्थकार कहते हैं कि उस प्रत्यक्षमें वे शास्त्र संबंधी कल्पनायें विद्यमान हैं, ऐसी दशामें एकान्तरूपसे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष नहीं हुआ विकल्पसहित हो गया । शास्त्रीय सिद्धान्त ही त्रिलोक, त्रिकालमें अबाधित होते हैं । लौकिक युक्तियाँ तो अनेक स्थलोंपर व्यभिचरित हो जाती हैं, जैसे कि छतमेंसे पानी चुचाना उसके शीघ्र पतनका चिन्ह है, किन्तु रुडकीकी नहरका पुल चुचाता रहनेपर ही दृढ रहेगा । चुचाना बन्द हो जाने पर अल्पकाल में गिर पडेगा, ऐसा उसके निर्माताका आद्यनिवेदन सुना जाता है ।
तदपाये च बुद्धस्य न स्याद्धमोंपदेशना ।
कुय्यादेर्या न सा तस्येत्येतत्पूर्वं विनिश्वितं ॥ ३२ ॥
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और उस शास्त्रीय कल्पनाके नहीं माननेपर बुद्धके धर्मका उपदेश देना नहीं बन सकता है । जैसे कि झोंपडी, खम्मा, चौकी आदिके द्वारा धर्मोपदेश नहीं होता है । उसी प्रकार बुद्ध द्वारा जो धर्मोपदेश होना आपने माना है । वह सर्वथा निर्विकल्पक बुद्धज्ञानसे नहीं सम्भवता है । वह उपदेश बुद्धभगवानका नहीं कहा जा सकता है । इन सब बातोंका हम पहिले प्रकरणोंमें विशेषरूपसे निश्चय कर चुके हैं।
ततः स्यात्कल्पना स्वभावशून्यमभ्रतं प्रत्यक्षमिति व्याहतं ।
. तिस कारण कल्पना स्वभावोंसे शून्य होता हुआ भ्रान्ति ज्ञानोंसे रहित प्रत्यक्ष है, इस प्रकार बौद्धोंका लक्षण करना व्याघातयुक्त हुआ । क्योंकि बुद्ध प्रत्यक्षके अतिरिक्त इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षों में कल्पना होना मान लिया गया है । दूसरी बात यह है कि कल्पनाओंसे रहितपना भी तो एक कल्पना है । तथा अभ्रान्तपना भी तो प्रत्यक्षमें दूसरी कल्पना है । इस प्रकार कहनेपर व्याघात दोष आता है । जैसे कोई जोरसे चिल्लाकर कहे कि मैं चुपका बैठा हूं। यहां व्याघात लग बैठता है। दो दो तीन तीन कल्पनायें गढ़ते हुए भी पुनः उसीको निर्विकल्पक कहनेवालेपर वदतो व्याघात दोष पडता है ।
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येत्वा हुनेंद्रियानिंद्रियानपेक्षं प्रत्यक्षं तस्य तदपेक्षामंतरेण संभवादिति तान् प्रत्याह;अब दूसरे जो वादी विद्वान् यों कह रहे हैं कि इन्द्रिय और मनकी नहीं अपेक्षा रखता हुआ कोई भी प्रत्यक्षज्ञान नहीं होता है । प्रायः सभी प्रस्यक्षोंमें इन्द्रिय और मनकी अपेक्षा है । उनकी अपेक्षाके विना उस प्रत्यक्षकी उत्पत्ति नहीं होती है। असम्भव है। इस प्रकार कहने वाले उन वैशेषिकोंके प्रति आचार्य स्पष्ट उत्तर कहते हैं ।
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