Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
अस्पष्टा प्रतीतिः कल्पना, निश्चितिर्वा कल्पना इति परिस्फुटं कल्पना लक्षणमनुक्त्वा अभिलापवती प्रतीतिः कल्पनेत्यादितल्लक्षणमाचक्षाणो न प्रेक्षावान् ग्रंथगौरवापरिहारात् । न हि काचित्कल्पना स्पष्टास्ति " न विकल्पानुविद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासता " इति वचनात् । स्वमवती प्रतीतिरस्तीति चेन्न, तस्याः सौगतैरिंद्रियजत्वेनाभ्युपगमात् स्वमांतिकेंद्रियव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधानात् । मानसत्वे तस्या तदनुपपत्तेः ।
अविशद प्रतीति होना कल्पना है। अथवा निश्चयस्वरूप विकल्प होना कल्पना है। इस प्रकार अधिक स्फुट रूपसे कल्पनाके लक्षणको नहीं कहकर शब्द योजनावाली प्रतीति कल्पना है। वस्तुको नहीं छूनेवाली परिच्छित्ति कल्पना है, इत्यादि उस कल्पनाके लक्षणोंको बखान रहा बौद्ध तो विचारशालिनी बुद्धिको धारनेवाला नहीं है। क्योंकि इस ढंगसे ग्रन्थके गौरवका परिहार नहीं हो पाता है। व्यर्थ ग्रन्थका बोझ बढानेसे लाभ क्या है? कोई भी कल्पना स्पष्ट नहीं है। बौद्धोंने स्वयं अपने ग्रन्थमें कहा है कि कल्पनासे ओत पोत घेरे गये अर्थका स्पष्ट प्रतिभास नहीं हो पाता है। यदि कोई बौद्धका एकदेशी कल्पनाका लक्षण अस्पष्ट न मानता हुआ यों दोष देवे कि स्वप्नमें हो रही प्रतीति स्पष्ट होती हुई भी कल्पना है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि उस स्वप्नवाली इप्तिको बौद्धोंने इन्द्रियजन्यज्ञानपनेसे स्वीकार किया है । स्वमके निकट पूर्वकालमें हो रहे इन्द्रियोंके व्यापारका अन्वयव्यतिरेक रूपसे उसने अनुकरण किया है । यदि उस स्वप्नकी ज्ञप्तिको मन इन्द्रियजन्य माना जायगा तो बहिरङ्ग इन्द्रियोंके साथ अन्वयव्यतिरेक लेना नहीं बनेगा । बौद्ध मतानुसार स्वप्नबुद्धि स्पष्ट हो रही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है। अतः कल्पनाका लक्षण अस्पष्ट करना चाहिये । ऐसी अस्पष्टकल्पनासे रहित प्रत्यक्ष यदि माना गया है तो बौद्धोंने स्वपरको लाभ पहुंचा दिया कहना चाहिये ।
___ मरीचिकासु तोयप्रतीतिः स्पष्टेति चेन्न, तस्याः स्वयमस्पष्टत्वेपि मरीचिकादर्शनस्पष्टस्वाध्यारोपात्तथावभासनात् । ततो नाव्यापीदं लक्षणं । नाप्यतिव्यापि कचिदकल्पनायाः अस्पष्टत्वाभावात् ।
कल्पनाके लक्षणमें अव्याप्ति दोषको उठाते हुये बौद्ध शंका करते हैं कि बालूरेत या फूले हुये कांसोंमें हुयी जलकी प्रतीति स्पष्ट हो रही है। किन्तु वह कल्पना ज्ञान है। आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि वह जलज्ञान यद्यपि स्वयं अस्पष्ट है । फिर भी मरीचिकाके चाक्षुष प्रत्यक्षमें विद्यमान हो रहे स्पष्टत्वका जलज्ञानमें पूरा आरोपकर देनेसे तिस प्रकार स्पष्ट प्रतिभास जाता है । तिस कारण यह कल्पनाका अस्पष्ट लक्षण अव्याप्ति दोषयुक्त नहीं है । और इस लक्षणकी कहीं अतिव्याप्ति भी नहीं है । क्योंकि कल्पनारहित ज्ञानोंके अस्पष्टपना नहीं देखा जाता है । अथवा अकल्पनाज्ञानोंमें स्पष्टता न होनेसे जो अतिव्याप्ति दोषकी सम्भावना थी वह भी नहीं रही । कल्पना