Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
घट है, घट है, केवल इतना ही हो रहा धारावाहिक ज्ञान भी प्रमाण हो जाना चाहिये । श्वेताम्बरोंके द्वितीय कथनसे कि सभी पर्यायें पर्यायार्थिकनयसे अपूर्व ही हैं, तो अपूर्व अर्थका ग्राहकपना प्रमाणमें भले प्रकार पुष्ट हो जाता है । अतः "स्वापूर्वार्धव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं" यह लक्षण ठीक है। केवलज्ञानमें भूत, भविष्यत्, वर्तमान कालवर्ती समयोंकी विशिष्टतासे अपूर्वार्थग्राहीपना बन जाता है। सर्वज्ञदेव दूसरे समयोंमें भूतको चिरभूत समझते हैं। भविष्यको वर्तमान समझते हैं। और चिर भविष्यको भविष्य जानते हैं। एक एक समयकी अपेक्षासे पर्यायोंमें सूक्ष्म विशेषताऐं जानी जा रही हैं। अतः केवलज्ञान भी कथंचित् अपूर्व अर्थका ग्राहक है। वर्तनेमें आ रहे प्रमाणका अपूर्वार्थ विशेषण तो स्वरूपनिरूपणमें तत्पर है।
तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता। लक्षणेन गतार्थत्वाद्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥ ७८ ॥ गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति ।
तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ॥ ७९ ॥
तिस कारण स्व और अर्थका व्यवसाय करनास्वरूप ज्ञान प्रमाण है, इस प्रकार इतने ही लसगसे सर्व प्रयोजन प्राप्त हो जाता है। अन्य सर्वथा अपूर्व अर्थका ग्राहकपन, बाधवर्जितपना, लोकसम्मतपना, आदि विशेषण व्यर्थ हैं । जो ज्ञान ग्रहण किये जा चुके अथवा नहीं गृहीत हुये भी अपने और अर्थको यदि निश्चय करता है, तो वह ज्ञान लोकमें और शास्त्रोंमें भी प्रमाणपनेको नहीं छोड़ता है । भावार्थ-स्व और अर्थक विषयमें पडे हुये अज्ञान आदि समारोपको जो ज्ञान स्वार्थ निश्चय द्वारा निवृत्त करता है, वह ज्ञान प्रमाण है । धारावाहिक ज्ञानोंसे अज्ञानकी निवृत्ति नहीं हो पाती है । अतः श्री माणिक्यनन्दी आचार्य द्वारा कहा गया अपूर्वार्थ विशेषण केवल सरूपके निरूपण करनेमें तत्पर है । धारावाहिक ज्ञानकी व्यावृत्ति करना भी उसका फल है । वह अर्वार्थविशेषण कहीं मूल लक्षणमें डाल दिया है । कचित् व्याख्यान करनेसे लब्ध हो जाता है।
वाधवर्जितताप्येषा नापरा स्वार्थनिश्चयात् । स च प्रवाध्यते चेति व्याघातान्मुग्धभाषितम् ॥ ८॥ बाधकोदयतः पूर्वं वर्तते खार्थनिश्चयः । तस्योदये तु बाध्येतेत्येतदप्यविचारितम् ॥ ८१ ॥ अप्रमाणादपि ज्ञानात्प्रवृत्चेरनुषंगतः । बाधकोद्भूतितः पूर्व प्रमाणं विफलं ततः ॥ ८२॥