Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
उनमें भले प्रकार विद्यमान है । तिस कारण द्विवचनान्त पदसे एक परोक्ष और एक ही विशद प्रत्यक्षको कहनेवाले उस सूत्रका व्याघात नहीं हुआ। तथा श्रुतज्ञान और प्रत्यभिज्ञान आदिक परोक्ष हैं । इस प्रकार यह भी सूत्रसे विरुद्ध नहीं है । क्योंकि भविष्यके " आधे परोक्षम् " इस सूत्र करके उनको परोक्षपना समझाकर कहा गया है। ____ अवग्रहहावायधारणानां स्मृतेश्च परोक्षत्ववचनात् तद्विरोध इति चेत्र, प्रत्यभिज्ञादीत्यत्र वृत्तिद्वयेन सर्वसंग्रहात् । कथं । प्रत्यभिज्ञाया आदिः पूर्व प्रत्यभिज्ञादीति स्मृतिप
तस्य ज्ञानस्य संग्रहात् प्राधान्येनावग्रहादेरपि परोक्षत्ववचनात् प्रत्यभिज्ञा आदिर्यस्येति वृत्या पुनरभिनिबोधपर्यंतसंगृहीतेने काचित्परोक्षव्यक्तिरसंग्रहीता स्यात् । तत एव प्रत्यभिज्ञादीति युक्तं व्यवहारतो मुख्यतः स्खेष्टस्य परोक्षव्यक्तिसमूहस्य प्रत्यायनात् । अन्यथा स्मरणादि परोक्षं तु प्रमाणे इति संग्रह इत्येवं स्पष्टमभिधानं स्यात् । ततः शदार्थाश्रयणाम कश्चिदोषोत्रोपलभ्यते ।
अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा और स्मृतिको भी परोक्षपना कहा गया है। अतः केवल श्रुत और प्रत्यभिज्ञा आदिको ही परोक्षपना कहनेसे उस सूत्रका विरोध तदवस्थ है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि प्रत्यभिज्ञादि इस शद्वमें षष्ठी तत्पुरुष और बहुव्रीहि समास इन दो वृत्तियोंसे सभी परोक्ष प्रमाणोंका संग्रह हो जाता है । कैसे हो जाता है ! सो उत्तर सुनिये । जो ज्ञान प्रत्यभिज्ञाके आदि यानी पूर्ववर्ती हैं, वे प्रत्यभिज्ञादि हैं, इस प्रकार तास द्वारा अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृतिपर्यन्त ज्ञानोंका संग्रह हो जाता है। अवग्रह आदिकोंको भी प्रधानतासे परोक्षपनका कथन किया गया है । तथा प्रत्यभिज्ञा है आदिमें जिसके, ऐसी बहुव्रीहि नामक समास वृत्तिसे फिर चिन्ता ( व्याप्तिज्ञान ) अभिनिबोध ( अनुमान ) पर्यंत ज्ञानोंका संग्रह हो जाता है। अतः कोई भी परोक्षव्यक्ति असंग्रहीत नहीं हुयी । तिस ही कारण प्रत्यभिज्ञादि इस प्रकार वार्तिकमें कहना युक्ति पूर्ण है । क्योंकि व्यवहार और मुख्यरूपसे स्वयंको अभीष्ट हो रहे परोक्ष व्याक्तियोंके समुदायका निर्णय करा दिया गया है । अवग्रह आदिक मुख्यरूपसे परोक्ष हैं । हां, व्यवहारसे प्रत्यक्ष भी हैं। अन्यथा यानी सभी परोक्षोंका संग्रह करना यदि इष्ट नहीं है और अवग्रह आदिकको परोक्षमें नहीं डालना चाहते होते तो स्मरण आदिक तो परोक्ष हैं, इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्षं दो प्रमाण हैं, ऐसा यह स्पष्ट ही कथन कर दिया जाता । किन्तु " प्रत्यभिज्ञादि " कह देनेसे उक्त स्वरस है । तिस कारण शब्द और अर्थसम्बन्धी न्यायका आसरा लेनेसे कोई भी दोष यहां नहीं दीखता है। अतः स्वकीयभेद प्रभेदोंसे युक्त प्रत्यक्ष और अपने भेद प्रभेदोंसे युक्त परोक्ष ये दो मुख्य प्रमाण है। शेष प्रमाणज्ञान इन्ही दोके परिवार हैं।