Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
तुम बौद्धोंके यहां जिस प्रकार साष्टपनेकी निर्विषयपनेके साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं मानी जायगी। क्योंकि समीचीन घट, पट आदिके प्रत्यक्षोंमें व्यभिचार होगा । अतः प्रत्यक्षको निर्विषय सिद्ध करनेवाला अनुमान ठीक नहीं है । उसीके समान अस्पष्टपने की भी निर्विषयपनेके साथ व्याप्ति नहीं बन पाती है । क्योंकि अनुमानसे व्यभिचार होगा। सम्यक् अनुमान अस्पष्ट होते हुये भी अपने ग्राह्य अर्थसे सहित माना गया है । यदि उस अनुपानको अर्थवान् नहीं माना जायगा तो अर्थमें उसको प्रवर्तकपना कैसे हो सकेगा ! यदि बौद्ध यों कहें कि अनुमान द्वारा अवस्तुभूत सामाग्यको जानकर फिर सामान्यका विशेष अर्थ के साथ सम्बन्ध हो जानेसे अनुमानकी अर्थमें प्रवर्तकता हो जायगी, ग्रन्थकार कहते हैं कि सो यह तो न कहना । क्योंकि सामान्यके संबंधी विशेषको जाननेवाला वह ज्ञान भी तिस प्रकार निर्विषय है । ऐसी दशा होनेपर अर्थमें प्रवृत्ति करानापन नहीं बनता है।
लिंगलिंगिधियोरेवं पारंपर्येण वस्तुनि। . प्रतिबंधात्तदाभासशून्ययोरप्यवंचनम् ।। १३ ॥ . मणिप्रभामणिज्ञाने प्रमाणत्वप्रसंगतः। पारंपर्यान्मणौ तस्य प्रतिबंधाविशेषतः ॥ १४ ॥
यदि बौद्ध यों कहें कि उन हेत्वाभास और साध्याभासोंसे रहित जो समीचीन हेतु और साध्य हैं, उनको जाननेवाले ज्ञानोंका भी परम्परासे यथार्थ वस्तुमें अविनाभावसंबंध हो रहा है । अर्थात्-स्वनिष्ठज्ञापकतानिरूपित-ज्ञाप्यत्व सम्बन्धसे लिङ्गवान् लिङ्गी हो जाता है । समीचीन हेतुकी साध्यसामान्यके साथ व्याप्ति है। और साध्यसामान्यका स्वलक्षणस्वरूप यथार्थ वस्तु विशेषके साथ संबंध है । अतः परम्परासे अनुमान प्रमाण वस्तुभूत अर्थका स्पर्शी है। अनुमान प्रमाणसे जानकर वस्तुकी अर्थक्रियामें कोई ठगाया नहीं जाता है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम स्याद्वादी कहेंगे कि यों तो मणिकी प्रभामें हुये मणिके जाननेवाले ज्ञानको भी प्रमाणपनेका प्रसंग हो जायगा । क्योंकि उस मणिज्ञानका भी परम्परासे यथार्थ मणिमें अविनाभावरूप करके संबंध हो रहा है, कोई विशेषता नहीं है । भावार्थ-किसी गृह ( मकान ) या संदूकमें चमकीली मणि रक्खी हुई है । तालीके छेदमेंसे उसकी प्रभा चमक रही है। छेदकासा आकार मणिका भी संभव है । मणि जैसा प्रकाश करती है, छेदकी प्रभा भी कुछ न्यून वैसी चमकको कर रही है। ऐसी दशामें किसी आततायी पुरुषने छेदके आकारवाली प्रभाको हो. मणि समझ लिया। यहां भी मणिप्रभाका मणिके साथ संबंध हो जानेसे यह ज्ञान भी प्रमाण बन बैठेगा। किन्तु चमकते हुये तालीके छेदको उस आकारवाली मणि समझ लेना तो सम्यग्ज्ञान नहीं है।