Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थकोकवार्तिके
सो तो ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षकी सामग्री इन्द्रिय और अनुमानकी सामग्री अविनाभावी हेतुसे सर्वथा भिन्न हो रही वचनस्वरूप सामग्रीसे भले प्रकार उत्पन्न हुये श्रुतज्ञानकी तीसरे न्यारे प्रमाणपन करके व्यवस्था मानना उपयुक्त हो रहा है । वचनको तो उपचारसे प्रमाण माना गया है । कारण कि विशिष्ट ज्ञानका अतिनिकट कारण शब्द है।
अक्षलिंगाभ्यां विभिन्ना हि वचनात्मा सामग्री तस्याः समृद्भूतं श्रुतं प्रमाणांतरं युक्तमिति न तदध्यक्षमेवानुमानमेव वा सामग्रीभेदात् प्रमाणभेदव्यवस्थापनात् ।
जिससे कि प्रत्यक्ष और अनुमानके कारण इन्द्रियां और ज्ञापक हेतुओंसे वचनस्वरूप सामग्री सर्वथा ( बिलकुल ) न्यारी है, उससे समुत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान न्यारा प्रमाण है । यह सिद्धान्त युक्ति. पूर्ण है । इस कारण वह श्रुतज्ञान प्रत्यक्षरूप ही अथवा अनुमानस्वरूप ही नहीं है । सामग्रीके भिन्न भिन्न होनेसे प्रमाणाके भेदकी व्यवस्था करा दी जाती है।
यत्रंद्रियमनोध्यक्षं योगिप्रत्यक्षमेव वा । लैंगिकं वा श्रुतं तत्र वृत्तेर्मानांतरं भवेत् ॥ १७३ ॥ प्रत्यक्षादनुमानस्य माभूत्तर्हि विभिन्नता । तदर्थे वर्तमानत्वात् सामग्रीभित्समा श्रुतिः ॥ १७४ ॥
जिस बौद्धके यहां इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष और स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ये चार प्रत्यक्ष माने गये हैं, अथवा तीन प्रकारके हेतुओंसे उत्पन्न हुआ अनुमान माना गया है, उसके यहां प्रवृत्ति करानेवाला होनेसे श्रुतज्ञान भी तीसरा भिन्न प्रमाण हो जावेगा। यदि सामग्रीके मेदसे प्रमाणके मेदको न मानकर प्रमेयके मेदसे प्रमाणका भेद मानोगे तब तो बौद्धोंके यहां प्रत्यक्ष प्रमाणसे अनुमानप्रमाणका भेद नहीं हो पावेगा। क्योंकि प्रत्यक्षके द्वारा ही जानलिये गये वस्तुभूत 'क्षणिकपनरूप उसके विषयमें अनुमान प्रमाण वतरहा है। हां, यदि सामग्रीके भेदसे प्रत्यक्ष और अनुमानका भेद माना जावेगा तब तो श्रुतज्ञान भी अनुमानके समान सामग्रीभेद होनेसे भिन्नप्रमाण हो जाओ। अर्थात्-प्रत्यक्ष ज्ञानकी इन्द्रिय आदिक सामग्री है। और अनुमानकी हेतु, व्याप्ति स्मरण, आदि न्यारी सामग्री है । उसीके समान शद्वसंकेत स्मरण, आदिक सामग्री श्रुतज्ञानकी निराली है।
न हि विषयसभेदात् प्रमाणभेदः प्रत्यक्षादनुमानस्याभेदप्रसंगात् । न च तत्ततो भिन्नविषयं सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वात् । प्रत्यक्षमेव सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयं न पुनरनुमानं तस्य सामान्यविषयत्वादिति चेत् ततः कस्यचित्कचित्मवृत्त्यभावप्रसंगात् । सर्वोर्थक्रियार्थी हि प्रवर्तते न च सामान्यमशेषविशेषरहितं काचिदर्थक्रिया संपादयितुं समर्थ तत्तु शानमात्रस्याप्यभावात् ।