Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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ताचार्यचिन्तामणिः
आचार्य महाराज बौद्धोंके प्रति कहते हैं कि विषयके भेदसे प्रमाणका भेद मानना ठीक नहीं है। अन्यथा प्रत्यक्षप्रमाणसे अनुमानके अमेद हो जानेका प्रसंग होगा । देखिये, वह अनुमानप्रमाण उस प्रत्यक्षसे मिन विषयवाला तो नहीं है। क्योंकि सामान्य विशेषरूप वस्तुको दोनों भी प्रमाण विषय करते हैं । यदि बौद्ध यों कहें कि प्रत्यक्ष ही सामान्य विशेषरूप वस्तुको विषय करता है। किन्तु अनुमान तो फिर सामान्यविशेषस्वरूप वस्तुको विषय नहीं करता है । वह अनुमान केवल सामान्यको ही विषय करता है । इस प्रकार कहनेपर तो हम कहेंगे कि उस अनुमानसे किसीकी भी कहीं (कार्यमें ) प्रवृत्ति नहीं हो सकनेका प्रसंग आता है। अभिलाषुक जांवोंकी प्रवृत्ति केवल सामान्यमें हो नहीं सकती है । विशेषोंके विना कोरा सामान्य असत है । विशेष घोडेके विना सामान्य घोडेपर कोई चढ़ नहीं सकता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद, म्लेच्छ, पतित, भागभूमियां, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के अतिरिक्त सामान्य मनुष्य कोई वस्तु नहीं है। अर्थक्रियाको चाहनेवाले सभी मनुष्य अोंमें प्रवृत्ति कर रहे हैं, किन्तु सम्पूर्ण विशेषोंसे रहित होता हुआ सामान्य किसी भी अर्थक्रियाको बनानेके लिये समर्थ नहीं हैं। यहांतक कि वह विशेषरहित सामान्य सुलमतासे की जा सकनेवाली केवल अपना ज्ञान करादेनारूप अर्थक्रियाको भी तो नहीं बना सकता है। इससे बढकर और अर्थक्रियारहितपना क्या होगा ! प्रत्येक पदार्थ कमसे कम सर्वज्ञके ज्ञानमें अपनी ज्ञप्ति करादेनारूप अर्थक्रियाको तो कर ही रहे हैं। इस कार्यमें तो किसी पदार्थको किसीसे कुछ नहीं लेना देना पड़ता है। ___सामान्यादनुमिताद्विशेषानुमानात् प्रवर्तकमनुमानमिति चेत्, न अनवस्थानुषंगात् । विशेषेपि अनुमानं तत्सापान्यविषयमेव परं विशेषमनुमाय यदेव प्रवर्तकं तत्राप्यनुमानं तत्सामान्यविषयमिति सुदरमपि गत्वा सामान्यविशेषविषयमनुमानमुपगंतव्यं ततः प्रवृत्ती वस्य प्राप्तिपसिद्धेः।
यदि कोई यों कहे कि पूर्वके अनुमानसे जान लिये गये सामान्यसे पुनः दूसरा विशेषको जाननेके लिये अनुमान किया जायगा, और उस दूसरे अनुमानसे विशेषव्यक्तिमें प्रवृत्ति हो जायगी, अतः अनुमानप्रमाण प्रवर्तक है, आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि अनवस्था दोषका प्रसंग होता है। विशेषमें भी जो पीछेसे अनुमान होगा वह सामान्यको विषय करनेवाला ही होगा। कारण कि सामान्यरूपसे व्याप्तिका ग्रहण होता है। धूम हेतुकरके अनिका सामान्यरूपसे ज्ञान होगा और अनि सामान्यसे अनिविशेषको यदि जाना जायगा तो भी सामान्यरूपसे ही अमि विशेषको जान सकोगे। धूम हेतुकी अनि विशेषके साथ व्याप्ति नहीं जानी गयी है। जहां धुआ है, यहां विशेष अग्नि है। अथवा जहां अग्नि सामान्य है, वहां अनिविशेष है, ऐसी व्याप्ति बनानेसे जैसे व्यभिचार दोष आता है, तिस ही प्रकार विशेषका अनुमान भी सामान्यरूपसे होगा । पुनः उस अन्य विशेषको अनुमान करके जानकर जो ही अनुमान प्रवर्तक कहा जावेगा, वहां भी
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