Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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किसी विषय में अभ्यासके दृष्ट कारण पुनः पुनः करके अनुभव होना घोषणा (घोखना) आदि हैं। किसी मेघावी जीवके एक बार देखने से भी अभ्यास हो जाता है। अवधान करना, स्मरणशक्तिपर बल देना, ब्राह्मी, बादाम, घृत, आदिका सेवन भी बहिरंग निमित्त कारण है तथा उस विषय संबंधी ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मोंका क्षयोपशम होना, विनयसंपत्ति होना, स्फूर्ति, प्रतिभा, विशुद्धि, आदि अन्तरंग जो कि बहिरंग इन्द्रियों द्वारा नहीं दीखे जांय, ऐसे नाना प्रकार के निमित्त कारण हैं। ये दृष्ट, अदृष्ट विचित्र कारण भी अभ्यास होनेपर ही अपने कारणोंकी विचित्रतासे बन जाते हैं । पुरुषार्थ करनेसे पुनः पुनः अनुभव हो जाता है । कषायोंकी मन्दता, गुरुभक्ति, सदाचार, शुद्धभोजनपान, ब्रह्मचर्य, आदिसे ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम बढिया हो जाता है । ऋतु परिवर्तन के समान कारणोंकी विचित्रता अनेक निमित्तोंसे संसार में हो रही प्रसिद्ध है । तथा अनम्यासके भी दृष्ट निमित्तकारण तो एक बार अनुभव करना, उपेक्षा रखना, अन्यमनस्क होना, खोटा आचार करना, आदि हैं। और अनभ्यासके अदृष्ट कारण अनभ्यास ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मो का क्षयोपशम, उद्धतपना, कषायसद्भाव, बुद्धिस्थूलता आदि हैं। विचित्रतासे उन कारणोंमें विचित्रता होनेपर किसी जीवका किसी विषय में होना बन जाता है । तिस कारणसे अभ्यास दशामें स्वतः और अनभ्यास दशामें परतः प्रमाणपन के 1 ज्ञानकी व्यवस्था होना युक्त है ।
उनके भी कारणोंकी अभ्यास और अनभ्यास
तत्प्रसिद्धेन मानेन स्वतो सिद्धस्य साधनम् ।
प्रमेयस्य यथा तद्वत्प्रमाणस्येति धीधनाः ॥ १४५ ॥
तिस कारण स्वतः नहीं सिद्ध हुये प्रमेयकी स्वतंत्र प्रसिद्ध प्रमाण करके जिस प्रकार सिद्धि की जाती है, उसीके समान अनभ्यास दशामें प्रमाणकी सिद्धि भी अभ्यासके प्रसिद्ध प्रमाण करके कर ली जाती है । इस प्रकार बुद्धिधनके स्वतंत्र अधिकारी आचार्य महाराज कह रहे हैं ।
न हि स्वसंवेदन वदभ्यासदशायां स्वतः सिद्धेन प्रमाणेन प्रमेयस्य स्वयमसिद्धस्य साधनमनुरुध्यमानैरनभ्या सदशायां स्वयमसिद्धस्य तदपाकर्तुं युक्तं, सिद्धेनासिद्धस्य साध नोपपत्तेः । ततः सूक्तं संति प्रमाणानीष्टसाधनादिति ।
स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के समान अभ्यास दशामें स्वतः प्रसिद्ध प्रमाण करके स्वयं असिद्ध हो रहे प्रमेयकी सिद्धिको अनुरोध कर कहनेवाले वादियोंकरके अनभ्यास दशामें स्वयं असिद्ध हो रहे प्रमाणकी सिद्धि भी प्रसिद्ध प्रमाण करके हो जाती मान लेनी चाहिये । उन वादिओंको उसका खण्डन करना उचित नहीं है। क्योंकि असिद्ध पदार्थकी सिद्ध पहिलेसे प्रसिद्ध हो चुके तत्त्वसे होती हुयी बन जाती है। पण्डितोंकी समीचीन शिक्षासे मूर्ख भी पण्डित बन जाते हैं। दानियोंके परोपकारसे दरिद्र भी सफलमनोरथ हो जाते हैं । तिस कारण यह अनुमान बहुत अच्छा कहा