Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
१३४
तत्वार्थ लोकवार्तिक
पदार्थ तो किसीका ज्ञापक होता नहीं है। कहीं स्वतः और कहीं अन्य प्रत्यक्षोंसे यदि प्रत्यक्षज्ञानों की सिद्धि होना मानोगे इस प्रकार तो स्याद्वादसिद्धान्तका आश्रय लेना ही बढिया पडा ।
सर्वस्यापि स्वतोध्यक्षप्रमाणमिति चेन्मतिः । केनावगम्यतामेतदध्यक्षाद्योगिविद्विषाम् ॥ १५१ ॥
यदि चार्वाकोंका यह मन्तव्य होय कि सम्पूर्ण जीवोंके सभी प्रत्यक्षोंको स्वयं अपने आप ही से प्रत्यक्ष होकर प्रमाणपना प्रसिद्ध हो रहा है, तब तो हम पूछेंगे कि सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने अपने प्रत्यक्षका स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण हो रहा है। यह किसके द्वारा जाना जाय ? इस बातका हमको निर्णय मला कैसे हो सकता है ! बताओ। प्रत्यक्ष प्रमाणसे सम्पूर्ण पदार्थोंका एक ही समयमें अवलोकन करनेवाले केवलज्ञानी योगियोंसे विशेष द्वेष करनेवाले चार्वाकोंके यहां यह निर्णय कैसे भी नहीं हो सकता है कि सबके प्रत्यक्ष अपने अपने स्वरूपमें प्रत्यक्ष करते हुये प्रत्यक्षपनेसे व्यवस्थित हैं । किन्तु यह जानना तो आवश्यक है, जो अन्योंके प्रयक्षोंको नहीं मानना चाहता है, वह अकेले स्वयंको और अपने वर्तमानकालके प्रत्यक्षको ही जीवित देखना चाहता है । किन्तु उसके चाहनेसे अन्य प्राणियोंका और उनके प्रत्यक्षोंका प्रलय नहीं माना जा सकता है । अन्यथा स्वयं उसके भूत, भविष्यत् कालके हो चुके और होनेवाले प्रत्यक्षोंकी क्या दशा होगी ? |
प्रमाणांतरतो ज्ञाने नैकमानव्यवस्थितिः । अप्रमाणाद्वावेव प्रत्यक्षं किमुपोष्यते ॥ १५२ ॥
अन्य प्रमाणोंसे यदि सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रत्यक्षोंका ज्ञान होना इष्ट करोगे तो चार्वाकों के यहां एक ही प्रत्यक्ष प्रमाण माननेकी व्यवस्था नहीं हो सकी । अन्योंके प्रत्यक्षप्रमाणोंको जाननेके लिये अनुमान, आगमकी भी शरण लेनी पड़ी। यदि अप्रमाणज्ञान से ही उन प्राणियोंके प्रत्यक्षोंका जानना मानोगे तो फिर एक प्रत्यक्षको भी प्रमाणपना क्यों पुष्ट किया जा रहा है ? जहां पण्डिताभास ही कार्यकारी हो रहे हैं, वहां घोर तपस्या कर विद्वत्ताको प्राप्त कर चुके ठोस पण्डितों की क्या आवश्यकता है ? मिथ्याज्ञानोंसे ही पदार्थोंकी ज्ञप्ति माननेपर एक प्रत्यक्षको भी प्रमाण माननेका व्यर्थ बोझ क्यों लादा जाता है ! गोंगचियोंके भूषणमें मोती मिलाना असङ्गत है ।
सर्वस्य प्रत्यक्षं स्वत एव प्रमाणमिति प्रमाणमंत रेणाधिगच्छन् प्रमेयमपि तथाधिगच्छतु विशेषाभावात् । ततस्तैः प्रत्यक्षं किमुपोष्यत इति चिंत्यम् ।
सभी प्राणियों के प्रत्यक्ष स्वयं अपने आप ही से प्रत्यक्ष प्रमाणरूप निर्णीत हो रहे हैं । इस सिद्धान्तको प्रमाणके विना ही अधिग्रम कर रहा चार्वाकवादी घट, पट, आदि प्रमेयोंको भी तिस ही प्रकार प्रमाणके बिना ही जान को, दोनों प्रकारके ज्ञेयोंमें कोई विशेषता नहीं है। तो फिर तिन