Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यलोकवार्तिके
कारणानुपलंभाचे कार्यकारणतानुमा । व्यापकानुपलंभाच व्याप्यव्यापकतानुमा ॥ १५५ ॥ तद्यातिसिद्धिरप्यन्यानुमानादिति न स्थितिः। परस्परमपि व्याप्तिसिद्धावन्योन्यमाश्रयः ॥ १५६ ॥
साध्य और साधनका क्षयोपशमके अनुसार एक ही बार या पुन पुनः ( बार बार ) निश्चय होनारूप प्रत्यक्ष और साध्यके न होनेपर साधनके न होनेका एक ही बारमें या बार बारमें निश्चयरूप अनुपलम्भसे तो उस व्याप्तिका निर्दोष साधन करना नहीं बन सकेगा । क्योंकि आप बौद्धोंने उन प्रत्यक्ष और अनुपलम्भोंको अत्यन्त निकटवर्ती अर्थीको विषय करनेवाला माना है । तीनों कालके साध्य या साधनोंको वे विषय नहीं करते हैं । किन्तु व्याप्तिज्ञान तो सर्वदेश और सर्वकालके साध्यसाधनोंको जानता है । यदि कारणके अनुपलम्भसे कार्यके न दीखनेपर कार्यकारणभावसम्बन्ध ( व्याप्ति ) का अनुमान किया जायगा और व्यापकके अनुपलम्भसे व्याप्यके नहीं दीखनेपर व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध (व्याप्ति ) का अनुमान कर लिया मायगा, इस प्रकार कहोगे तब तो उस व्याप्तिको साधनेवाले अनुमानकी जनक व्याप्तिका साधन भी अन्य अनुमानसे किया जायगा। इस प्रकार आगे भी यही धारा चलेगी, कहीं स्थिति न होवेगी। अनुमानसे व्याप्तिको जाननेमें अनवस्था दोष स्फुट है। प्रकृत अनुमानसे उस व्याप्तिको जाननेवाले अनुमानकी व्याप्ति सध जायगी और उस अनुमानसे प्रकृत अनुमानकी व्याप्ति सध जायगी । इस प्रकार परस्परमें भी व्याप्तिको सिद्ध करनेमें अन्योन्याश्रय दोष आता है।
योगिप्रत्यक्षतो व्याप्तिसिद्धिरित्यपि दुर्घटम् । सर्वत्रानुमितिज्ञानाभावात् सकलयोगिनः॥ १५७ ॥ परार्थानुमितो तस्य व्यापारोपि न युज्यते । अयोगिनः स्वयं व्याप्तिमजानानः जनान प्रति ॥ १५८॥ . योगिनोपि प्रति व्यर्थः स्वस्वार्थानुमिताविव ।
समारोपविशेषस्याभावात् सर्वत्र योगिनाम् ॥ १५९ ॥
बौद्ध यदि सबको जाननेवाले योगियोंके प्रत्यक्षसे व्याप्तिकी सिद्धि होना मानेंगे यह भी घटित करना कठिन है। क्योंकि सकल भूत, भविष्यत्, वर्तमानके त्रिलोकवर्ती पदार्थीको युगपत् जाननेपाले सकल योगीके सभी विषयोंमें प्रत्यक्षज्ञान हो रहा है । उनको अनुमानज्ञान नहीं होता है। अतः स्वयं अपने प्रत्यक्षसे व्याप्तिको जानकर सर्वज्ञके स्वार्यानुमान · करना जब है ही नहीं तो