Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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दुष्टकारणजन्यस्य स्वार्थनिर्णीत्यसंभवात् । सर्वस्य वेदनस्येत्थं तत एवानुमानतः ॥ ९०॥ स्वार्थनिश्चायकत्वेनादुष्टकारणजन्यता। तथा च तत्त्वमित्येतत्परस्परसमाश्रितम् ॥ ९१ ॥
प्रमाणके सामान्य लक्षणमें दिया गया निर्दोष कारणोंसे जन्यपना इस प्रकार यह प्रमाणका विशेषण भी व्यभिचाररहितपनेसे सफलताको प्राप्त नहीं हो सकता है । जो ज्ञान दुष्ट कारणोंसे जन्य है, उसके द्वारा स्व और अर्थका निर्णय होना ही असम्भव है । अतः प्रमाणका लक्षण स्वार्थ निश्चय ही पर्याप्त है । अधिककी आवश्यकता नहीं । दूसरी बात यह है कि अनेक भ्रान्त ज्ञानोंके जनक कारणोंको भी लोक निर्दोष समझ बैठे हैं । तिस ही कारण अनुमानसे भी इस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञानोंकी निर्दोषकारणोंसे उत्पत्ति होनेको नहीं जान सकते हैं। क्योंकि उस अनुमानकी भी निर्दोष कारणोंसे उत्पत्तिको जानना कठिन है । पाप्तिज्ञानकी निर्दोषताका परिज्ञान ततोपि कठिन है । यदि स्त्र और अर्थका निश्चय कारकपनसे ज्ञानकी निर्दोष कारणोंसे उत्पन्नता जानी जाय और निर्दोष कारणोंसे उत्पत्ति होनेका कारण वह स्वार्थनिश्चायकपना माना जाय, तिस प्रकार होनेपर तो यह अन्योन्याश्रय दोष हुआ चक्षु आदिक अतीन्द्रिय इन्द्रियोंकी निर्दोषता जानना कठिन विषय है । बाहरसे तो कहीं कहीं निर्दोषचक्षु भी सदोषसदृश दीखती है । और दूषित भी चक्षु निर्दोष दीख जाती है । भिन्न भिन्न दार्शनिकोंने सत्त्व हेतुसे क्षणिकत्व, नित्यत्व, कथंचित् नित्यपन, कारण रहितपना, कारणसहितपना, आदि साध्योंकी सिद्धि करली है । सभी बौद्ध, सांख्य, जैन, अद्वैतवादी आदिने सत्त्व हेतुकी अपने अभीष्ट साध्यके साथ व्याप्ति मान रक्खी है | अविनाभावविकलता दोषसे रहित सत्त्व हेतु है । तथा कामधेनुके समान यथेष्ट अर्थको कहने वाले वैदिक शद्बोंसे भी कर्मकाण्डी, ब्रह्मवादी, हिंसापोषक, हिंसानिषेधक विद्वानोंने अपने मनोवांच्छित वाच्य अर्थका प्रतिपादन होना मान लिया है । वे सब अपने अपने शादबोधके कारणोंको निर्दोष मान बैठे हैं। अतः प्रत्यक्ष, अनुमान, शाद ज्ञानोंके कारणोंमें दोषोंके अभावका ज्ञान करना विषम समस्या है ।
यदि कारणदोषस्याभावज्ञानं च गम्यते । ज्ञानस्यादुष्टहेतूत्था तदा स्यादनवस्थितिः ॥ ९२॥ हेतुदोषविहीनत्वज्ञानस्यापि प्रमाणता । स्वहेतुदोषशून्यत्वज्ञानात्तस्यापि सा ततः ॥ ९३ ॥ गत्वा सुदूरमेकस्य तदभावेपि मानता ।। यदीष्टा तद्वदेव स्यादाद्यज्ञानस्य सा न किम् ॥ ९४ ॥