Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यलोकवार्तिक
यदि फिर नैयायिकोंका यह मन्तव्य होय कि जैसे मिश्री चारों ओर ( तरफ ) से मीठी है, उसी प्रकार सर्वाङ्गनिश्चय स्वरूप होनेके कारण ही निश्चयात्मकज्ञान स्वरूपमें निश्चय नहीं कराता हुआ भी स्वयं निश्चयरूप सिद्ध हो जाता है। हां, प्रत्यक्ष स्वयं निश्चयरूप सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि प्रत्यक्षज्ञानका शरीर स्वयं निश्चयरूप नहीं है। तब तो हम जैन भी कहेंगे कि अर्थ ज्ञानको जाननेवाला दूसरा ज्ञान तीसरे अन्य ज्ञानसे नहीं जाना गया हुआ भी सिद्ध हो जायगा। क्योंकि वह घटको जाननेवाले पहिले ज्ञानका ज्ञान है। किन्तु फिर पहिला अर्थका ज्ञान दूसरे ज्ञानसे नहीं जाना गया हुआ तो नहीं सिद्ध होगा। क्योंकि वह ज्ञानका ज्ञान नहीं है। इस प्रकार अन्य ज्ञानोंसे जानने योग्य प्रकृतज्ञानको कहनेवाले नैयायिकोंके यहां भी अर्थका संवेदन होना नहीं उद्घाटित हो सकेगा । यदि नैयायिक यों कहें कि पहिला अर्थज्ञान जो है, सो ज्ञान भी बना रहे और दूसरे ज्ञानोंसे जानने योग्य भी होता रहे, कोई विरोध नहीं है। ऐसा कहनेपर तो हम भी कह देंगे कि अर्थका निश्चय भी निश्चय बना रहे और स्वरूपमें निश्चयको भी उत्पन्न कराता रहे, उस ही कारणसे कोई विरोध नहीं है। यदि वह निश्चय भी तिस ही प्रकार माना जायगा, तब तो वही दोष उपस्थित होगा जो कि पूर्वमें कहा जा चुका है।
स्वसंविदितत्वानिश्चयस्य स्वयं निश्चयान्तरानपेक्षत्वेनुभवस्यापि तदपेक्षा माभूत् ।
यदि निश्चय ज्ञानको स्वसंवेदन होनेके कारण स्वयं निश्चय स्वरूपपना है, स्वयंको अन्य निश्चयोंकी अपेक्षा नहीं है, ऐसा कहोगे तो प्रत्यक्षरूप अनुभवको भी उन अन्य ज्ञानोंकी अपेक्षा नहीं होओ। समी ज्ञान अपने अपने स्वरूपका स्वयं निश्चय कर लेते हैं।
शक्यनिश्चयमजनयन्नेवार्यानुभवः प्रमाणमभ्यासपाटवादित्यपरः । तस्यापि " यत्रेव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" इति ग्रंथो विरुध्यते ।
निश्चय करनेकी सामर्थ्यको नहीं उत्पन्न करा रहा ही अर्थका अनुभव प्रमाण हो जाता है, क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञानको अभ्यासकी पटुता ( दक्षता ) है । इस प्रकार कोई प्रतिवादी कह रहा है । उस बौद्धके भी माने गये इस ग्रंथका उक्त कथनसे विरोध होता है कि निर्विकल्पक ज्ञान जिस ही विषयमें इस निश्चयरूप सविकल्पक बुद्धिको उत्पन्न करा देवेगा, उस ही विषयमें इस प्रत्यक्षको प्रमाणपना है । अर्थात् जैसे कि घटका प्रत्यक्ष हो जानेपर पीछेसे उसके रूप, स्पर्श, आदिमें निश्चयज्ञान उत्पन्न हो गया है । अतः रूप और स्पर्शको जाननेमें निर्विकल्पकज्ञान प्रमाण माना जाता है । किन्तु प्रत्यक्षद्वारा वस्तुभूत क्षणिकत्वके जान लेनेपर भी पीछेसे - क्षणिकपनका निश्चय नहीं हुआ है । अतः क्षणिकको जामनेमें प्रत्यक्षकी प्रमाणता नहीं है । अतः निश्चयको नहीं पैदा करनेवाला प्रत्यक्ष यदि प्रमाण मान लिया जायगा तो “यत्रैव जनयेदेनां" इस ग्रन्यसे विरोध पडेगा ।
कश्चायमभ्यासो नाम ? पुनः पुनरनुभवस्य भाव इति चेत्, क्षणक्षयादौ तत्पमाणस्वापत्तिस्तत्र सर्वदा सर्वार्थेषु दर्शनस्य भावात् परमाभ्याससिद्धेः ।